गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

अपना खून

रंजना काफी दिनों से बीमार थी और आज मर गयी। आश्रम के सभी लोग स्तब्ध थे। मैं पहली बार आश्रम में रहने वाली एक औरत की मौत देख रही थी क्योंकि मुझे आश्रम में आये हुए कुछ ही महीने हुए थे। एक महीने से रंजना मेरे काफी निकट आ गयी थी। वैसे तो यहां की हर औरतों की आंखों में दर्द तैरता है लेकिन रंजना की आंखें जैसे दर्द ही उगलती थी।
रंजना को दो बेटे थे। दोनों को वह न जाने कितने पत्र लिख चुकी थी पर कोई भी उससे मिलने नहीं आया। एक दिन उसने भीगे कण्ठ में मुझसे कहा- देख लेना पुष्पा, हमारे बेटे मेरे मरने पर हमें आग देने भी नहीं आयेगें।
आश्रम के संचालकों द्वारा रंजना के मरने की खबर उसके दोनों बेटों को दी जा चुकी थी परन्तु कोई नहीं आया। मैं भीतर तक कांप उठी थी, सामने रंजना की लाश पड़ी थी।
अब कितना इन्तजार करें, चलो शमशान चलते हैं। आश्रम के कर्मचारी आपस में बात कर रहे थे। हाँ, अब इसके बेटों की प्रतीक्षा करना बेकार है, चलो उठाओ लाश। थोड़ी ही देर में राम नाम सत्य है कि आवाज गूंजने लगी। मुझे लगा जैसे रंजना की जगह मैं हूँ और सब मेरे बेटे प्रकाश के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, पर प्रकाश नहीं आया। अंत में मुझे चार लोग अपने कंधें पर उठा लेते हैं। आश्रम की सभी औरतें अपने आंसू पोछती हैं। रंजना के रूप में मुझे अपने जीवन का अंतिम कड़वा सच, उजागर होता हुआ दिखाई दे रहा था। मुझे लगा जैसे रंजना की मौत ने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। मैं एकाएक चीख उठी। सब लोग मेरी ओर देखने लगे लेकिन मैं चीखती ही जा रही थी, नहीं, मुझे मत जलाओ, मेरा बेटा प्रकाश आयेगा। वही मुझे आग देगा। बेटा ही तो मां-बाप की चिता को आग देता है न?
क्या मेरा इतना भी हक नहीं है  कि अपने बेटे से थोड़ी सी आग भी मांग सकूं। सब मेरी ओर बढ़कर मुझे शांत करने में लगे थे पर मैं रोती जा रही थी। मुझे खुद पता नहीं कि मैनें दुःख की अतिरेक में कब अपने कपड़े तार-तार करने शुरु कर दिए थे।
अरे, ये बुढ़िया हो पागल हो गयी।किसी का स्वर उभरा था।
हाँ, मैं पागल हो गयी हूँ, मैं पागल हो गयी हूँ। मैं अपने बालों को खींचती हुई जोर-जोर से बोल रही थी और उसके बाद मैं अचेत हो गयी।
सूर्योदय के साथ दिन निकला उसी के साथ सामान्य दिनचर्या शुरु हो गयी। पूरे दिन के एक क्षण में ऐसा भी कुछ घट जाता है जिससे उस व्यक्ति की पूरी दुनिया ही बदल जाती है। कल की वेदना और संत्रास के जाल से मैं मुक्त नहीं हो पायी थी। जिन्दगी भी न जाने कितनी लम्बी होती है कि खत्म होने का नाम नहीं लेती। न जाने कितने प्रसंग, दर्द की तहों में बंद हैं।
मैं नहीं चाहती कि किसी भी एक दर्द की तह को खोलूं पर मेरे चाहने और न चाहने से क्या होता है। अब जब उम्र के एकदम आखिरी मुकाम पर पहुंच गयी हूँ तो पिछली सारी दर्द की तहें जैसे एक-एक करके खुल जाना चाहती हैं, क्यों? इसका उत्तर मेरे पास नहीं है। कभी अपना चेहरा आइने में देखती हूँ तो मुझे स्वयं अपने पर तरस आता है। मैंने कहां से अपना सफर शुरु किया था और आज मैं कहां पहुंच गयी?
मैं आश्रम में बैठी हूँ सारी औरतें सो गयी हैं। सबकी आंखों में नीरवता और सूनापन कैद है। न जाने इनको नींद कैसे आ जाती है। शायद ये अपने सूनेपन, एकाकीपन और नीरवता को नियति समझ कर खामोश बैठ गयी हैं लेकिन मैं यहां नयी-नयी आयी हूँ। कुछ ही महीनें हुए मेरा बेटा प्रकाश मुझे यहां छोड़ गया है। प्रकाश जब मुझे आश्रम में छोड़ने आया था तब मैनें उसके चेहरे को ध्यान से देखा था, मुझे यहां छोड़ने का जरा भी दुःख उसके चेहरे से नहीं झलक रहा था बल्कि एक निश्चितता का भाव दिख रहा था। ये चेहरा भी मन के सारे भाव किस कदर खोलकर रख देता है।
मां तुम तो जानती है न मेरी मजबूरी। अब रजनी किसी तरह का समझौता नहीं करना चाहती। मैंने उसे समझाया लेकिन.....
रहने दे मैंने बीच में ही प्रकाश की बात काट दी थी, क्या करती उसकी बात सुनकर। आखिर वह भी क्यों अपने मन की सफाई देना चाहता है। जो हो गया सो हो गया। मुझे आश्रम में आना था, मैं आ गयी। शायद यही मेरा अन्तिम पड़ाव है।
तूं मुझसे मिलने आया करेगा न प्रकाश। मेरा प्रश्न सुनकर प्रकाश एक क्षण के लिए रूका। मैंने साफ अनुभव किया कि वह हिचक रहा था पर दूसरे ही क्षण वह बोल उठा-आऊंगा मां, तू चिन्ता मत करना।
लगभग तीन महीना व्यतीत हो गया है, इस आश्रम में मुझे आये हुए परन्तु वह दोबारा लौटकर नहीं आया। मैं अक्सर अपने कमरे की खिड़की से सड़क की तरपफ देखती रहती हूँ। न जाने कितने चेहरे इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं लेकिन मेरी आंखें जिस चेहरे को देखना चाहती हैं वह चेहरा इन तमाम चेहरों में कहीं नजर नहीं आता। आंखें सड़क की तरपफ टकटकी लगाए रहती हैं लेकिन कहीं प्रकाश नजर नहीं आता।
आज इतनी रात हो गए मुझे अपना बचपन याद आ रहा है। कहते हैं बचपन बड़ा सुन्दर होता है। हजारों चिन्ताओं से मुक्त, खेल-खिलौने, पर मेरे हिस्से में कुछ नहीं था। मेरे हिस्से में था तो स्कूल जाने से पहले और लौटने के बाद घर गृहस्थी का भारी बोझ। जब मैं बड़ी हुई, कालेज जाने लगी तो मन इन्द्रध्नुषी सपने बुनने लगा। यथार्थ के धरातल से पैर उखड़ कर आसमान की ओर भागने लगे।
वह पल भी आया, जब मेरे सपनों के साकार होने की बारी आयी। दुलहन बनकर मैं ससुराल गयी। वहां जाकर सपनों के टूटने का अहसास हुआ। मुझे जाते ही पता चल गया कि मेरे पति एक दूसरी औरत के प्यार में डूबे हैं, यह बात उन्होंने पहली ही रात बता दी। उन्होंने अपने मां-बाप की मर्जी को रखते हुए मुझसे शादी कर ली। जब तक सास-ससुर जिन्दा थे। बहू-बहू कहकर दुलार दिखाते रहे, मेरे पति भी बनावटी प्यार करते रहे। सास-ससुर की मौत के बाद मेरे पति दूसरी औरत को घर पर लाने लगे। तब तक मेरा प्रकाश एक वर्ष का हो चुका था।
मेरा पति तो मेरा नहीं हो सका लेकिन मेरा बेटा मुझसे दूर न हो जाय यह डर हमेशा लगा रहता था। मेरे पति अक्सर उस स्त्री को लेकर घर आ जाते मुझसे खाना बनवाते और आवभगत करवाते। अपने दिल को पत्थर बनाकर जिया मैंने, आज मैं सोचती हूँ कि किसके लिए मैंने सब कुछ सहा, इसीलिए कि मेरा बेटा मुझे आश्रम में लाकर पटक दे।
मैं जब तक घर का सारा काम करती थी। बच्चों को संभालती थी, तब तक प्रकाश और उसकी पत्नी मुझे मां-मां करते रहे लेकिन जब मेरी शरीर की शक्ति चुक गयी तब उनके लिए मैं बोझ बन गयी और मुझे आश्रम में डालकर चला गया मेरा बेटा। मेरे साथ उसकी पत्नी बदसलूकी करती और वह दूर खड़ा तमाशा देखता, तो मेरे मन में आता कि पगले किससे तू दूर भाग रहा है जिसने तुझे नौ महीने अपनी कोख में रखा, जिसका खून तुम्हारे शरीर में दौड़ रहा है।
पति तो मेरा कभी नहीं हो सका परन्तु प्रकाश तो मेरा खून है उसे मैंने अपने खून से पाला है। तू तो मेरा अपना था, तू क्यों मुझे आश्रम में छोड़कर चला गया। मेरी, तेरी पत्नी से कोई लड़ाई नहीं थी मैं घर के सभी काम काज करती थी परन्तु आज जब मैं अशक्त हो गयी तो मेरे साथ परायों जैसा व्यवहार होने लगा। मेरे मन में उद्वेग बढ़ने लगा मन के भीतर मुक्ति की चाह प्रबल होने लगी। मुझे अपने से भी नफरत होने लगी। कहा जाता है न कि जब दुर्दिन आते हैं तो अपना खून भी साथ नहीं देता और साया भी साथ छोड़ देता है। मेरे साथ भी ऐसा हुआ, मेरे खून ने ही मेरा साथ छोड़ दिया। अब तो आश्रय ही मेरा पड़ाव है, यहीं जीना है और यहीं मरना है।

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