याज्ञवल्क्य स्मृति में याज्ञवल्क्य ऋषि ने मार्मिक आह्वान करते हुए कहा है कि ‘अयं तु परमोधर्मो यद्योगेनात्मदर्शनम्।’ अर्थात् ‘योग’ के द्वारा आत्म दर्शन करना ही परमधर्म है। हमें वैदिक समाज की ‘योग’ विषयक जागरूक प्रवृत्ति का निदर्शन कराता है। जीवन और प्रकृति से जुड़े रहस्यों पर पड़े आवरण को अनावृत्त कर देने की उत्कट अभिलाषा ही कदाचित ‘योग’ की एक वैज्ञानिक विधि के विकास की हेतु बनी होगी। हम इसे नकार नहीं सकते कि मुनि पतंजलि द्वारा ‘योग’ की इस वैज्ञानिक विधि को सुव्यवस्थित और लेखबद्ध करने से पहले इसकी कोई गौरवशाली परंपरा वैदिक समाज में नहीं थी। वेदों के होते हुए भी महर्षियों द्वारा अन्य शास्त्रों के निर्माण की क्या आवश्यकता थी? इसका कारण बताते हुए मुनि यास्क ने कहा है कि आलस्य के कारण मनुष्यों ने तत्त्वज्ञान को जटिल मानकार उदासीन होना शुरू कर दिया था। ऋषियों ने शास्त्रों के द्वारा इसी तत्वज्ञान को रोचक ढंग से प्रस्तुत किया। अंतिम रूप से आज हम यह जानने की या घोषणा करने की स्थिति में तो नहीं हैं कि ‘योग’ शास्त्र स्वतंत्र रूप से कब अस्तित्व में आया? परंतु वैदिक संहिताओं से ले कर अपेक्षाकृत अत्यंत पश्चातवर्ती पुराणों तक हमें ‘योग’ विषयक संदर्भ प्रचुरता के साथ मिलते हैं। अनेक वैदिक ऋचाएं प्रत्यक्षतया अथवा प्रकारांतर से ‘योग’ के विभिन्न पक्षों को उद्घाटित कर रही है। समाहित मन, प्राण, साधना आदि ‘योग’ की विभिन्न स्थितियों और प्रक्रियाओं पर ये ऋचाएं सिलसिलेवार न सही किंतु हमारा ध्यान अवश्य आकृष्ट करती हैं। ऋग्वेद के 1.18.7, 1.34.9, 10.13.1 आदि मंत्रों को हम ‘योग’ विषयक उद्घोषणा करता हुआ पाते हैं। यजुर्वेद के अनेक मंत्रों में हम समाहित मन और उसके प्रतिफल का सुंदर निदर्शन पाते हैं। यजुर्वेद के 11वें अध्याय के 1 से 5 तक के मंत्रों से उत्कृष्ट ‘योग’ की घोषणा कौन कर सकेगा? जरा वेद की शब्दावली देखिए:
युञ्जते मनऽउत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः।
सिद्धयोग मनीषी ऋषि दयानंद ने युञ्जते का अर्थ स्थिर करना कहा है। मन को स्थिर करने का भाव ‘युञ्जते मनः’ में है। बुद्धियों को स्थिर करने का भाव ‘युञ्जते धिया‘ में है जबकि मेधावी सद्-असद् विवेकवान व्यक्ति ‘विपश्चितः’ शब्द से बोध्य है। यजुर्वेद में ग्यारहवें अध्याय के प्रथम मंत्र को देखें:
युञ्जानः प्रथमं मनस्तत्त्वाय सविता धियः।
ऋषि दयानंद ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में इस मंत्र में आए ‘युञ्जानः’ पद का अर्थ ‘योगं कुर्वाणः सन् (मनुष्याः)’ - ‘योग’ करते हुए (मनुष्य) करते हैं।
यजुर्वेद के ऊपर संकेतित पांचों मंत्र ‘योग’ की विस्तृत परिचर्चा करने वाले श्वेताश्वतर उपनिषद में यथावत् पढ़े गए हैं। अथर्ववेद (19.8.2) में भी हम बीजरूप में ‘योग’ शब्द विद्यमान पाते हैं। ‘योग’ प्रक्रिया के सबसे अहं सोपान प्राण-विद्या का हम वैदिक ऋचाओं में महती विस्तार देखते हैं। वैदिक संहिताओं में प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान-प्राणों का हमें बहुशः उल्लेख मिलता है। यद्यपि प्राण एक ही है परंतु कार्य वैभिन्य एवं स्थान, स्थिति और चेष्टा भेद से इनके अनेक नाम रख लिए गए हैं। यजुर्वेद के मंत्रों में हमें कहीं दो, कहीं तीन, कहीं चार और एक दो स्थलों पर पांचों प्राणों का भी युग्म रूप से उल्लेख मिलता है। प्राणों के यजुर्वेद सहिंता में प्राण, अपान, व्यान और उदान का बहुशः उल्लेख है जबकि समान नामक प्राण को यत्र तत्र ही स्मरण किया गया है। अथर्ववेद में प्राण और अपान तथा व्यान और उदान के युगल का अतिशय उल्लेख उपलब्ध होता है। वस्तुतः प्राणों का सबसे विस्तृत उल्लेख है ही अथर्ववेद में। अथर्ववेद के 11वें कांड का चैथा सूक्त प्राणविद्या का अनुपम विवरण प्रस्तुत करता है। इस सूक्त में व्यष्टि से समष्टि तक प्राण के विभिन्न आधारों एवं क्रियाकलापों को स्मरण कर नमन किया गया है। सूक्त का प्रथम मंत्र ही प्राण की व्यापकता को रेखांकित करते हुए कहता है कि ‘उस प्राण के प्रति सबका नमन, जिसके वश में यह सब कुछ है। जो समस्त प्राणियों का ईश्वर है, और जिसमें यह सब प्रतिष्ठित है’। यजुर्वेद की एक ऋचा इन प्राणों को ऋषि कह कर संबोधित करती है। शरीर में विद्यमान प्राण रूप यह ऋषि ही मन-मस्तिष्क को
ऋषि रूप में विकसित और प्रतिष्ठापित करते हैं। ऋषि अर्थात अंतर्निहित तथ्यों और रहस्यों को यथावत जानने समझने की दृष्टि विशेष। तार्किक और बौद्धिक उत्कर्ष की चरमावस्था है यह ऋषित्व। ऋषित्व के अभाव में शास्त्रोक्त तथ्यों और विधानों का सम्यक परिज्ञान असंभव प्रायः ही है। योगचर्या के अभाव में ऋषित्व की प्राप्ति असंभाव्य है। अतः स्पष्ट ही है कि योगजन्य प्रज्ञाविवेक से ही वेद मंत्रों में अंतर्भूत तत्वों को जाना जा सकता है।
अहिर्बुध्न्य संहिता ‘योग’ के आदि प्रवक्ता के रूप में हिरण्यगर्भ का परिचय देती है। इसके अनुसार योगानुशासन एवं पाशुपत ‘योग’ इन दोनों के प्रवर्तक हिरण्यगर्भ हैं। अहिर्बुध्न्य संहिता ‘योग’ को बहिरंग तथा अंतरंग नामक दो भेदों वाला बतला कर इसे यमादि अंगों वाला निरुपित करती है। याज्ञवल्क्य स्मृति7 और महाभारत ’‘हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः’’ कह कर हिरण्यगर्भ को ही योग का आदि प्रवक्ता स्वीकार करते हैं। महाभारत का एक अन्य संदर्भ इस हिरण्यगर्भ को ‘द्युतिमान’ और ‘विभुः’ बताते हुए इसे वेदों में बहुशः स्मृत बताता है। ऋग्वेद के दसवें मंडल का 121वां सूक्त ‘हिरण्यगर्भ सूक्त’ कहलाता है। महाभारत द्वारा ‘द्युतिमान्’ और ‘विभुः’ कहा गया हिरण्यगर्भ और कोई नहीं वस्तुतः ऋग्वेदीय हिरण्यगर्भ सूक्त का ही तेजोमय ब्रह्म है। अद्भुद रामायण इस हिरण्यगर्भ को जगत का अंतरात्मा घोषित करती है। इस समस्त विवरण से स्पष्ट ही है कि वैदिक परंपरा ‘योग’ को ईश्वरप्रोक्त ही स्वीकार करती रही है।
‘योग’ के प्रवक्ता हिरण्यगर्भ के विषय में कुछ इतर धारणाएं भी विद्वानों ने व्यक्त की हैं। कुछ मनीषी सांख्य शास्त्र के प्रवक्ता मुनि कपिल को ही हिरण्यगर्भ कहते हैं तो कुछ अन्य हिरण्यगर्भ नाम के किसी ऋषि को ‘योग’ का आदि प्रवक्ता बताते हैं। हिरण्यगर्भ शास्त्र अति विस्तृत था शायद उसके सार को ग्रहण करके ही पतंजलि ने ‘योग’ ‘दर्शन’ का प्रणयन किया है।
हिरण्यगर्भ प्रोक्त इस ‘योग’ का अपेक्षाकृत विकसित रूप हमें उपनिषद साहित्य में प्राप्त होता है। यद्यपि यह इतना क्रमिक और सुसंबद्ध तो नहीं है जितना ‘योग’ सूत्रों में। पुनरपि ‘योग’ शास्त्र की समस्त रूप रचना उपनिषदों में उपलब्ध है। आत्मदर्शन की उत्कृष्ट अभिलाषा ही जिन ग्रंथों के प्रणयन की प्रेरणा बनी हो वे ‘योग’ के विस्तृत आधारों से आखिर कैसे निरपेक्ष हो सकते हैं? ‘योग’ दर्शन का लक्ष्य है- चित्तवृत्ति के निरोध द्वारा दृष्टा की स्वस्वरूप में अवस्थिति। वस्तुतः यह आत्म दर्शन की-समाधि की स्थिति है। उपनिषदों का भी यही लक्ष्य है। मैत्रेयी के समक्ष किया गया याज्ञवल्क्य का आह्वान आत्म दर्शन विषयक उत्कंठा का चरमोत्कर्ष है। ईशोपनिषद जिस हिरण्यमय आवरण को हटा कर सत्य के साक्षात्कार का परामर्श देता है, वह आवरण ‘योग’ शास्त्र में पंच क्लेशों के अंतर्गत पठित और अन्य सभी क्लेशों का मूल अविद्या के अतिरिक्त और क्या है? आयुर्वेद में भी प्रज्ञा अपराधों को ही सभी रोगों का मूल कहा गया है। उपनिषदों में प्रमुख केन, छांदोग्य, बृहदारण्यक, मैत्रायणी, कौशीतकी तथा श्वेताश्वतर आदि में उपदिष्ट ब्रह्मविद्या क्या ‘योग’ विद्या से इतर है? अनेक उपनिषदें विषय का प्रवर्तन ही ‘ब्रह्मवादिनो वदंति’ वाक्य के साथ करती हैं। उपनिषदों में हमें स्पष्टरूप से आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान, समाधि आदि योगांगों के नाम तथा विधि उपलब्ध होती है। यम-नियम के अंगभूत शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि का हम उपनिषदों में प्रचुरता से उल्लेख पाते हैं। तप, ब्रह्मचर्य एवं सत्य परक विवरण तो जैसे उपनिषदों के प्राणभूत हैं।
भारतीय दार्शनिक चिंतनधाराओं में योगानुष्ठान को अत्यंत महत्व मिला है। दर्शन ग्रंथों एवं उनके भाष्यों में ‘योग’ प्रकरण प्रमुखता से वर्णित हैं। विषय प्रतिपादन की दृष्टि से ‘योग’ दर्शन सांख्य दर्शन का जोड़ीदार है। यद्यपि सांख्य शास्त्र योग दर्शन से पर्याप्त प्राचीन माना जाता है। परंतु अत्यंत समानता के चलते इन दोनों को परस्पर पूरक भी समझा गया है। भगवानकृष्ण प्रतिपादित भगवत - गीता तो इन दोनों शास्त्रों को पृथक समझने वाले व्यक्ति को बाल बुद्धि ही घोषित करती है। सांख्य दर्शन में आसन, धारणा, ध्यान आदि योगांगों का ‘योग’ सूत्रानुसार ही पृथक सूत्र रच कर स्वरूप निर्धारण किया गया है। यहां तक कि दोनों शास्त्रों में कुछ सूत्र शब्दशः समान हैं। योग शास्त्र में वर्णित आसन, वृत्तियां और उनका स्वरूप, उनका विरोध और निरोध का प्रतिफल, पंच क्लेश, वृत्ति निरोध के साधन अभ्यास और वैराग्य, क्रिया योग, ध्यान और समाधि आदि का वर्णन सांख्य सूत्रों से पर्याप्त साम्य रखता है। सांख्य दर्शन की राय है कि स्वभाव से नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्त जीव प्रकृति के संपर्क संस्पर्श से बद्धवत् हो जाता है। प्रकृति के साथ संपर्क संस्पर्श का कारण बनता है अविवेक। जब तक अविवेक है तब तक ‘प्रकृति योग’ है और जब तक ‘प्रकृति योग’ है तब तक बंध रहेगा, दुख और द्वंद्व भी रहेंगे, जन्म और मरण का चक्र भी रहेगा। इस अविवेक की औषधि केवल समाधि है। समाधि द्वारा चेतन-अचेतन भेद का साक्षात्कार जब आत्मा को हो जाता है तब अविवेक की गुंजाइश ही कहां रह जाती है? अविवेक गया तो प्रकृति से संपर्क भी गया। प्रकृति से संपर्क गया तो अपवर्ग मिला। कितना साम्य है इस प्रक्रिया का ‘योग’ दर्शन के तरा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् के तात्पर्य के साथ।
न्याय शास्त्र समाधि की सत्कार्यता के लिए यम-नियमों पर विशेष बल देता है। वेदांत दर्शन मन को समाहित करने के लिए ध्यान सहित कई योगांगों का प्रतिपादन करता है। इसके अतिरिक्त हम प्राचीन साहित्य में भी योगानुष्ठान का महती निदर्शन पाते हैं। महाभारत के अनेक प्रकरणों विशेष तथा शांति पर्व, अश्वमेध पर्व तथा अनुशासन पर्व में योग विषयक महत्वपूर्ण सूचनाएं हैं। महाभारत की अंतर्वर्ती गीता तो ‘योग’ विषयक अनेक क्रांतिकारी परिभाषाओं और घोषणाओं का जीवंत दस्तावेज ही है। ‘योग’ शब्द को नए-नए संदर्भों में प्रयुक्त कर योगाचार के क्षेत्र और उसके आधारों को जैसा विस्तार और स्वरूप गीता ने दिया है वह सचमुच युगांतकारी है। ‘योग’ की परिभाषा एवं योगचर्या और उसके अंतर्निहित तत्वों-तप, कर्म, स्वाध्याय, ध्यान, एकाग्रता, अभ्यास, वैराग्य, आहार, विहार, दिनचर्या आदि का जैसा मनोरम, सरस और प्रवाहशील विवरण हमें गीता में मिलता है वह अन्यत्र दुर्लभप्रायः ही है। ज्ञान योग, कर्मयोग, भक्तियोग, राजयोग आदि के रूप में योगचर्या के बहुआयामी रूप का हम गीता में पर्याप्त विस्तार पाते हैं।
पुराण भारतीय साहित्य की सबसे विवादास्पद कृतियां हैं। पुराणों पर भारतीय धर्म और दर्शन को अपकर्ष की ओर ले जाने का आरोप अनेक विद्वान, सुधारक और समीक्षक लगाते रहे हैं। पुराणों में भी हमें योग विषयक संदर्भ बहुलता से मिलते हैं, परंतु इन आरोपों से यह भी विमुक्त न रह सके हैं। वायु, शिव, ब्रह्म, गरूड़, विष्णु, अग्नि तथा लिंग पुराण के ‘योग’ संदर्भ विशेष उल्लेख हैं। गरूड़ पुराण के चौदहवें अध्याय का ध्यान-योग वर्णन, अग्नि पुराण का क्रियायोग वर्णन, विष्णु पुराण का यम-नियमादि अष्टांग योग विवरण किसी भी अध्येता को सहज ही आकर्षित करते हैं। वायु पुराण का दशम् अध्याय हमें योगांगों से होने वाली हानि-लाभ से परिचित करवाता है। परंतु सतत ध्यातव्य है कि बहुत बार ये संदर्भ अति विस्तृत और असंबद्ध भी बन गए हैं।
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