गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

बदलती संस्कृति और भारत

किसी भी देश के अस्तित्व में तीन तत्व सहायक होते हैं- धर्म, संस्कृति और इतिहास। धर्म उस देश का मस्तिष्क, संस्कृति हृदय और इतिहास पांव के रूप में माना गया है। भारत के ऋषि-मुनियों ने ऐसे धर्म की रचना की है जिससे इस भूमि पर धर्म का अवलंबन लेकर असंख्य लोग सिद्ध हो गये। इन दिव्य आत्माओं के कारण ही भारत का गौरव चतुर्दिक फैला भारत जगत गुरु बना।

भारतीय संस्कृति एक ऐसी अनोखी अपूर्व शक्ति और जीवन दर्शन है जो भौगोलिक सीमाओं में सदियों से अनवरत प्रवाहित है। अनुकूल तथा विषम परिस्थितियों ने इस संस्कृति के बाह्य रूप को अत्यधिक प्रभावित किया किन्तु जीवनदायिनी आन्तरिक ऊर्जा का प्रवाह यथावत रहा। भारत में लोगों ने समय-समय पर अपने खानपान तथा पहनावा में परिवर्तन तो किये परन्तु धर्म और दर्शन का महत्व, संस्कृति और संस्कारों के प्रति प्रतिबद्धता तथा नैतिक मूल्य कभी नहीं परिवर्तित हुए।
संस्कृति का विचार करते समय हमें बुद्ध पूर्व काल में जाना पड़ेगा और यह देखना पड़ेगा कि उस समय भारतीय संस्कृति का स्वरूप कैसा था? वैदिक संस्कृति का मुख्य तत्व सर्व आनन्द मयहै जबकि बौद्ध संस्कृति का मुख्य तत्व सर्वं दुःख मयंहै। शेष तत्व भी इसी प्रकार परस्पर विरोधी है। फिर इन दोनों परस्पर विरोधी संस्कृतियों का समन्वय किस तरह हो सकता है? वैदिक धर्म के अनुयायी विश्व रूप को परमेश्वर मानकर और विश्व को आनन्दमय समझकर अनन्यभाव से विश्वरूप की सेवा करते हैं। इसके विपरीत बौद्ध विश्व को दुःखमय मानकर उसको छोड़ने का प्रयत्न करते हैं। फिर इन दोनों संस्कृतियों का समन्वय कैसे होगा? यह विचारणीय मुद्दा है।
अहं की प्रतिष्ठापना के उद्देश्य से स्थापित मत, पंथ एवं सम्प्रदायों में उलझा व्यक्ति, कुछ झूठे आग्रहों एवं अंधविश्वासों में कुंठित होकर सत्य से वंचित रह जाता है जब कि मत-मतान्तर के आग्रह से रहित ऋषि प्रतिपादित कर्मों से व्यक्ति मिथ्या आग्रहों से रहित होकर परम सत्य का दर्शन करने लगता है भारत की प्राचीन संस्कृति योग के कारण भी गौरवमयी रही है। हमारी प्राचीन सभ्यता में योगी होना उच्च प्रतिष्ठा समझा जाता था। भारतीय संस्कृति का मूलभूत सिद्धान्त है अध्यात्म अर्थात् आत्मा संबंधी विचार धारा। भारतीय अध्यात्म का मूल स्रोत है यथार्थ ज्ञान अर्थात् वेद। वेद, उपनिषद् और गीता भारतीय संस्कृति के मूल तत्व हैं। भारतीय संस्कृति के प्रति छेड़छाड़ या भ्रम की स्थिति फैलाना उचित नहीं है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के होने या न होने के प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। इसी तरह योग से भी साध्य तथा असाध्य व्याधियां दूर हो रही हैं। योग एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है इसे भी किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। ऋषि परम्परा से प्राप्त यह ज्ञान वैज्ञानिक है। हमारे ऋषि-महर्षि किसी भी वैज्ञानिक से कम नहीं थे। इसके पर्याप्त प्रमाण हमें मिलते हैं। हमारा अतीत सुनहरा था। हम विश्व क्षितिज पर चमकते सूर्य थे।
भारतीय समाज व्यापक अर्थों में वास्तव में एक सनातनी, सभ्य समाज है जो हर कोशिश के बावजूद अपनी पुरानी हर अच्छी, बुरी मान्यताओं से चिपका रहता है। यह समाज शिक्षा, बौद्धिक, मानसिक विकास तथा आर्थिक सम्पन्नता के असंख्य स्तरों, स्थितियों और टापुओं में बंटा हुआ है। निकृष्टतम छुआछूत, अन्धविश्वास, आत्मघाती कुरीतियों के साथ श्रेष्ठतम दार्शनिक चिन्तन और अन्तरिक्ष विज्ञान में अनुपम उपलब्धियों वाला अत्यध्कि जटिल समाज है।
काल के प्रवाह में निष्फल हो चुकी आत्मघाती पुरातन परम्पराओं में स्वयं को जकड़े रखकर सुरक्षित महसूस करने वाले इस समाज के लिए विदेशी चैनलों द्वारा प्रसारित कार्यक्रमों को सांस्कृतिक आक्रमण निरुपित किया जा रहा है। पाश्चात्य सभ्यता और जीवन दर्शन को महिमा मंडित करने वाले कार्यक्रमों द्वारा फैलाये जा रहे सामाजिक और मानसिक प्रदूषण के खतरे की लम्बे समय से चर्चा हो रही है किन्तु इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किये गये हैं।
सूचना क्रांति की नयी प्रौद्योगिकी ने भूगोल की दूरियां और समय के अंतराल को मिटा दिया है। उपग्रह से सम्प्रेषित सिग्नलों को अपनी सीमा में प्रवेश करने से रोकना तकनीकी दृष्टि से संभव नहीं है। आज की उपभोक्तावादी संस्कृति में प्रतियोगिता की अंधी दौड़ में हर छोटा-बड़ा जाने अनजाने शामिल है। क्योंकि यही आज जीने का ढंग है। बढ़ती हुई फैशन परस्ती ने तरह-तरह के कास्मेटिक और कपड़ों से बाजार भर दिये हैं। कोई भी प्रोडक्ट बाजार में चल पड़ता है बशर्ते उसका खूब जोर-शोर से विज्ञापन हो।
एक कड़वा सच है कि जिस देश को अपनी संस्कृति पर नाज था वह उसकी महत्ता को नजर अंदाज कर भौतिकवादी पाश्चात्य सभ्यता की अंधी नकल करने में लगा हुआ है। जबकि भौतिक संस्कृति के पुजारी पाश्चात्य संस्कृति के अनुयायी उसका खोखलापन समझने के बाद भारतीयता की सादगी और अध्यात्म की ओर आकर्षित हो रहे हैं।
भोगवादी संस्कृति की प्राण है-विज्ञापन कला। विज्ञापन की दुनिया जो फिल्म बनाती है वह भी फिल्मों की तरह ही ग्लैमरस और चकाचौंध से भरपूर होती है। इसका नशा बच्चों पर छा जाता है। ज्यादातर विज्ञापन पाश्चात्य विज्ञापनों के पैटर्न पर ही मिलेंगे-वही परिधान, वही पाश्र्वधुन और वही भाव भंगिमाएं। नारी देह का जितना बेशर्म, भौंडा प्रदर्शन इन विज्ञापनों में देखने को मिलता है उसकी इन्तिहा नहीं।
देश में बढ़ रही अश्लिलता पर रोक नहीं लगी तो पूरा देश पश्चिम की तरह अराजकता का शिकार हो जायेगा। यौन शिक्षा को प्रोत्साहित करने वाले पहले देख लें कि पश्चिमी जगत पर स्वच्छन्द यौनाचार का क्या प्रभाव पड़ा? स्कूलों में पढ़ने वाली छात्राओं के गर्भवती होने का प्रतिशत पश्चिम में 20 तक पहुँच गया है। सेक्स के मामले में बेहद खुलेपन से परिवार टूट रहे हैं, यौन रोग उत्कर्ष पर है और नैतिक मूल्यों का क्षरण हो रहा है। भारतीय समाज तथा परिवार की यदि पश्चिमी समाज तथा परिवार से तुलना की जाय तो दोनों में बुनियादी फर्क नजर आयेगा। इस अंतर को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। इससे भारतीय संस्कृति को काफी हानि उठानी पड़ी।
आज की भयावह परिस्थितियों में आचार-संहिता और नैतिक मूल्यों का क्षरण तेजी से हो रहा है इस पर अविलम्ब रोक लगाने के लिए हमें वेदों और ऋषि परम्परा की ओर रुख करना ही पड़ेगा। भूमंडलीकरण के नाम पर भारत में पश्चिमी सभ्यता की आंधी को आने से रोकना पड़ेगा। घातक हथियारों और अनावश्यक दवाओं का व्यापार बंद हो। धर्म, जाति, भाषा, वर्ण, लिंग, मजहब तथा वर्ग के नाम पर विघटित भारत एकता की रस्सी में बंधकर एकाकार हो जाय।
21वीं सदी के भारत में आवश्यकता है पतंजलि के जीवन दर्शन की। महर्षि पतंजलि कहते हैं तुम अपने भाग्य के स्वयं निर्माता हो। विवेक और दृढ़ता के साथ संघर्ष करो, तुम्हारे भीतर अपार शक्ति है, तुम अपने पुरुषार्थ से भाग्य को भी बदल सकते हो। आज के परिवेश में जीव अपना अस्तित्व खोता जा रहा है। भविष्य की आधरशिला है, तुम जहां खड़े हो प्रतिपल प्रतिबद्धता के साथ संघर्ष जारी रखो, तुम्हारे भीतर ही ऊर्जा का स्रोत है।  ऋतम्भरा की प्रखर-प्रज्ञा भी ध्यान से मिलेगी। ज्ञान, सुख-शांति और आनंद भी तुम्हारे भीतर है। निरन्तर अभ्यास और वैराग्य (विवेक) से जिस दिन तुम अपने अधिष्ठान में अवस्थित हो जाओगे कि तुम पाओगे कि सब कुछ तुम्हारे भीतर ही है। जैसे कस्तूरी मृग अपनी ही नाभि की दिव्य सुगन्ध का केन्द्र, बाहर मानकर भटकता है वैसे ही ऐ मानव! तूने अपना केन्द्र बाहर बना लिया है। जिस दिन तू अपने केन्द्र से, अस्तित्व से, चेतना से जुड़ जायेगा तो तुझे महसूस होगा कि तू पूर्ण है। सब कुछ तेरे पास है। इसलिए पतंजलि कहते हैं अज्ञान में उतरकर ज्ञान के द्वार खुलते हैं, निर्विचार स्थिति में पहुंचकर दिव्य विचार अवतरित होते हैं। पूर्ण मौन में समाधन निकलता है। गीता, वेद, पुराण दर्शन, उपनिषद, बाइबिल, कुरान तथा गुरुग्रंथ साहब का पवित्र ज्ञान तेरे ही भीतर है। भीतर नीरसता नहीं सरसता है। तुम एक बार समर्पण करके देखो तो सही। कब से तेरे भीतर रूपान्तरण घटित होना चाह रहा है। तुम इसे स्वीकार ही नहीं कर रहे हो। भारत के हंसते-खिलखिलाते उज्जवल भविष्य में न रोग हो, न गरीबी, न कटुता, न झूठ, न फरेब। भारत में सभी स्वावलम्बी, कर्मनिष्ठ तथा हर स्तर पर ईमानदार हों और भारत पुनः जगतगुरु कहलाये, यही मेरी अभिलाषा है।
सम्पर्क सूत्र: जयशंकर मिश्र सव्यसाची’, पतंजलि योगपीठ, महर्षि दयानन्द ग्राम, दिल्ली-हरिद्वार राष्ट्रीय राजमार्ग, निकट बहादराबाद, हरिद्वार-249402, उत्तराखण्ड

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