मंगलवार, 2 नवंबर 2010
गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010
‘योग’ परंपरा और उसका विकास
याज्ञवल्क्य स्मृति में याज्ञवल्क्य ऋषि ने मार्मिक आह्वान करते हुए कहा है कि ‘अयं तु परमोधर्मो यद्योगेनात्मदर्शनम्।’ अर्थात् ‘योग’ के द्वारा आत्म दर्शन करना ही परमधर्म है। हमें वैदिक समाज की ‘योग’ विषयक जागरूक प्रवृत्ति का निदर्शन कराता है। जीवन और प्रकृति से जुड़े रहस्यों पर पड़े आवरण को अनावृत्त कर देने की उत्कट अभिलाषा ही कदाचित ‘योग’ की एक वैज्ञानिक विधि के विकास की हेतु बनी होगी। हम इसे नकार नहीं सकते कि मुनि पतंजलि द्वारा ‘योग’ की इस वैज्ञानिक विधि को सुव्यवस्थित और लेखबद्ध करने से पहले इसकी कोई गौरवशाली परंपरा वैदिक समाज में नहीं थी। वेदों के होते हुए भी महर्षियों द्वारा अन्य शास्त्रों के निर्माण की क्या आवश्यकता थी? इसका कारण बताते हुए मुनि यास्क ने कहा है कि आलस्य के कारण मनुष्यों ने तत्त्वज्ञान को जटिल मानकार उदासीन होना शुरू कर दिया था। ऋषियों ने शास्त्रों के द्वारा इसी तत्वज्ञान को रोचक ढंग से प्रस्तुत किया। अंतिम रूप से आज हम यह जानने की या घोषणा करने की स्थिति में तो नहीं हैं कि ‘योग’ शास्त्र स्वतंत्र रूप से कब अस्तित्व में आया? परंतु वैदिक संहिताओं से ले कर अपेक्षाकृत अत्यंत पश्चातवर्ती पुराणों तक हमें ‘योग’ विषयक संदर्भ प्रचुरता के साथ मिलते हैं। अनेक वैदिक ऋचाएं प्रत्यक्षतया अथवा प्रकारांतर से ‘योग’ के विभिन्न पक्षों को उद्घाटित कर रही है। समाहित मन, प्राण, साधना आदि ‘योग’ की विभिन्न स्थितियों और प्रक्रियाओं पर ये ऋचाएं सिलसिलेवार न सही किंतु हमारा ध्यान अवश्य आकृष्ट करती हैं। ऋग्वेद के 1.18.7, 1.34.9, 10.13.1 आदि मंत्रों को हम ‘योग’ विषयक उद्घोषणा करता हुआ पाते हैं। यजुर्वेद के अनेक मंत्रों में हम समाहित मन और उसके प्रतिफल का सुंदर निदर्शन पाते हैं। यजुर्वेद के 11वें अध्याय के 1 से 5 तक के मंत्रों से उत्कृष्ट ‘योग’ की घोषणा कौन कर सकेगा? जरा वेद की शब्दावली देखिए:
युञ्जते मनऽउत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः।
सिद्धयोग मनीषी ऋषि दयानंद ने युञ्जते का अर्थ स्थिर करना कहा है। मन को स्थिर करने का भाव ‘युञ्जते मनः’ में है। बुद्धियों को स्थिर करने का भाव ‘युञ्जते धिया‘ में है जबकि मेधावी सद्-असद् विवेकवान व्यक्ति ‘विपश्चितः’ शब्द से बोध्य है। यजुर्वेद में ग्यारहवें अध्याय के प्रथम मंत्र को देखें:
युञ्जानः प्रथमं मनस्तत्त्वाय सविता धियः।
ऋषि दयानंद ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में इस मंत्र में आए ‘युञ्जानः’ पद का अर्थ ‘योगं कुर्वाणः सन् (मनुष्याः)’ - ‘योग’ करते हुए (मनुष्य) करते हैं।
यजुर्वेद के ऊपर संकेतित पांचों मंत्र ‘योग’ की विस्तृत परिचर्चा करने वाले श्वेताश्वतर उपनिषद में यथावत् पढ़े गए हैं। अथर्ववेद (19.8.2) में भी हम बीजरूप में ‘योग’ शब्द विद्यमान पाते हैं। ‘योग’ प्रक्रिया के सबसे अहं सोपान प्राण-विद्या का हम वैदिक ऋचाओं में महती विस्तार देखते हैं। वैदिक संहिताओं में प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान-प्राणों का हमें बहुशः उल्लेख मिलता है। यद्यपि प्राण एक ही है परंतु कार्य वैभिन्य एवं स्थान, स्थिति और चेष्टा भेद से इनके अनेक नाम रख लिए गए हैं। यजुर्वेद के मंत्रों में हमें कहीं दो, कहीं तीन, कहीं चार और एक दो स्थलों पर पांचों प्राणों का भी युग्म रूप से उल्लेख मिलता है। प्राणों के यजुर्वेद सहिंता में प्राण, अपान, व्यान और उदान का बहुशः उल्लेख है जबकि समान नामक प्राण को यत्र तत्र ही स्मरण किया गया है। अथर्ववेद में प्राण और अपान तथा व्यान और उदान के युगल का अतिशय उल्लेख उपलब्ध होता है। वस्तुतः प्राणों का सबसे विस्तृत उल्लेख है ही अथर्ववेद में। अथर्ववेद के 11वें कांड का चैथा सूक्त प्राणविद्या का अनुपम विवरण प्रस्तुत करता है। इस सूक्त में व्यष्टि से समष्टि तक प्राण के विभिन्न आधारों एवं क्रियाकलापों को स्मरण कर नमन किया गया है। सूक्त का प्रथम मंत्र ही प्राण की व्यापकता को रेखांकित करते हुए कहता है कि ‘उस प्राण के प्रति सबका नमन, जिसके वश में यह सब कुछ है। जो समस्त प्राणियों का ईश्वर है, और जिसमें यह सब प्रतिष्ठित है’। यजुर्वेद की एक ऋचा इन प्राणों को ऋषि कह कर संबोधित करती है। शरीर में विद्यमान प्राण रूप यह ऋषि ही मन-मस्तिष्क को
ऋषि रूप में विकसित और प्रतिष्ठापित करते हैं। ऋषि अर्थात अंतर्निहित तथ्यों और रहस्यों को यथावत जानने समझने की दृष्टि विशेष। तार्किक और बौद्धिक उत्कर्ष की चरमावस्था है यह ऋषित्व। ऋषित्व के अभाव में शास्त्रोक्त तथ्यों और विधानों का सम्यक परिज्ञान असंभव प्रायः ही है। योगचर्या के अभाव में ऋषित्व की प्राप्ति असंभाव्य है। अतः स्पष्ट ही है कि योगजन्य प्रज्ञाविवेक से ही वेद मंत्रों में अंतर्भूत तत्वों को जाना जा सकता है।
अहिर्बुध्न्य संहिता ‘योग’ के आदि प्रवक्ता के रूप में हिरण्यगर्भ का परिचय देती है। इसके अनुसार योगानुशासन एवं पाशुपत ‘योग’ इन दोनों के प्रवर्तक हिरण्यगर्भ हैं। अहिर्बुध्न्य संहिता ‘योग’ को बहिरंग तथा अंतरंग नामक दो भेदों वाला बतला कर इसे यमादि अंगों वाला निरुपित करती है। याज्ञवल्क्य स्मृति7 और महाभारत ’‘हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः’’ कह कर हिरण्यगर्भ को ही योग का आदि प्रवक्ता स्वीकार करते हैं। महाभारत का एक अन्य संदर्भ इस हिरण्यगर्भ को ‘द्युतिमान’ और ‘विभुः’ बताते हुए इसे वेदों में बहुशः स्मृत बताता है। ऋग्वेद के दसवें मंडल का 121वां सूक्त ‘हिरण्यगर्भ सूक्त’ कहलाता है। महाभारत द्वारा ‘द्युतिमान्’ और ‘विभुः’ कहा गया हिरण्यगर्भ और कोई नहीं वस्तुतः ऋग्वेदीय हिरण्यगर्भ सूक्त का ही तेजोमय ब्रह्म है। अद्भुद रामायण इस हिरण्यगर्भ को जगत का अंतरात्मा घोषित करती है। इस समस्त विवरण से स्पष्ट ही है कि वैदिक परंपरा ‘योग’ को ईश्वरप्रोक्त ही स्वीकार करती रही है।
‘योग’ के प्रवक्ता हिरण्यगर्भ के विषय में कुछ इतर धारणाएं भी विद्वानों ने व्यक्त की हैं। कुछ मनीषी सांख्य शास्त्र के प्रवक्ता मुनि कपिल को ही हिरण्यगर्भ कहते हैं तो कुछ अन्य हिरण्यगर्भ नाम के किसी ऋषि को ‘योग’ का आदि प्रवक्ता बताते हैं। हिरण्यगर्भ शास्त्र अति विस्तृत था शायद उसके सार को ग्रहण करके ही पतंजलि ने ‘योग’ ‘दर्शन’ का प्रणयन किया है।
हिरण्यगर्भ प्रोक्त इस ‘योग’ का अपेक्षाकृत विकसित रूप हमें उपनिषद साहित्य में प्राप्त होता है। यद्यपि यह इतना क्रमिक और सुसंबद्ध तो नहीं है जितना ‘योग’ सूत्रों में। पुनरपि ‘योग’ शास्त्र की समस्त रूप रचना उपनिषदों में उपलब्ध है। आत्मदर्शन की उत्कृष्ट अभिलाषा ही जिन ग्रंथों के प्रणयन की प्रेरणा बनी हो वे ‘योग’ के विस्तृत आधारों से आखिर कैसे निरपेक्ष हो सकते हैं? ‘योग’ दर्शन का लक्ष्य है- चित्तवृत्ति के निरोध द्वारा दृष्टा की स्वस्वरूप में अवस्थिति। वस्तुतः यह आत्म दर्शन की-समाधि की स्थिति है। उपनिषदों का भी यही लक्ष्य है। मैत्रेयी के समक्ष किया गया याज्ञवल्क्य का आह्वान आत्म दर्शन विषयक उत्कंठा का चरमोत्कर्ष है। ईशोपनिषद जिस हिरण्यमय आवरण को हटा कर सत्य के साक्षात्कार का परामर्श देता है, वह आवरण ‘योग’ शास्त्र में पंच क्लेशों के अंतर्गत पठित और अन्य सभी क्लेशों का मूल अविद्या के अतिरिक्त और क्या है? आयुर्वेद में भी प्रज्ञा अपराधों को ही सभी रोगों का मूल कहा गया है। उपनिषदों में प्रमुख केन, छांदोग्य, बृहदारण्यक, मैत्रायणी, कौशीतकी तथा श्वेताश्वतर आदि में उपदिष्ट ब्रह्मविद्या क्या ‘योग’ विद्या से इतर है? अनेक उपनिषदें विषय का प्रवर्तन ही ‘ब्रह्मवादिनो वदंति’ वाक्य के साथ करती हैं। उपनिषदों में हमें स्पष्टरूप से आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान, समाधि आदि योगांगों के नाम तथा विधि उपलब्ध होती है। यम-नियम के अंगभूत शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि का हम उपनिषदों में प्रचुरता से उल्लेख पाते हैं। तप, ब्रह्मचर्य एवं सत्य परक विवरण तो जैसे उपनिषदों के प्राणभूत हैं।
भारतीय दार्शनिक चिंतनधाराओं में योगानुष्ठान को अत्यंत महत्व मिला है। दर्शन ग्रंथों एवं उनके भाष्यों में ‘योग’ प्रकरण प्रमुखता से वर्णित हैं। विषय प्रतिपादन की दृष्टि से ‘योग’ दर्शन सांख्य दर्शन का जोड़ीदार है। यद्यपि सांख्य शास्त्र योग दर्शन से पर्याप्त प्राचीन माना जाता है। परंतु अत्यंत समानता के चलते इन दोनों को परस्पर पूरक भी समझा गया है। भगवानकृष्ण प्रतिपादित भगवत - गीता तो इन दोनों शास्त्रों को पृथक समझने वाले व्यक्ति को बाल बुद्धि ही घोषित करती है। सांख्य दर्शन में आसन, धारणा, ध्यान आदि योगांगों का ‘योग’ सूत्रानुसार ही पृथक सूत्र रच कर स्वरूप निर्धारण किया गया है। यहां तक कि दोनों शास्त्रों में कुछ सूत्र शब्दशः समान हैं। योग शास्त्र में वर्णित आसन, वृत्तियां और उनका स्वरूप, उनका विरोध और निरोध का प्रतिफल, पंच क्लेश, वृत्ति निरोध के साधन अभ्यास और वैराग्य, क्रिया योग, ध्यान और समाधि आदि का वर्णन सांख्य सूत्रों से पर्याप्त साम्य रखता है। सांख्य दर्शन की राय है कि स्वभाव से नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्त जीव प्रकृति के संपर्क संस्पर्श से बद्धवत् हो जाता है। प्रकृति के साथ संपर्क संस्पर्श का कारण बनता है अविवेक। जब तक अविवेक है तब तक ‘प्रकृति योग’ है और जब तक ‘प्रकृति योग’ है तब तक बंध रहेगा, दुख और द्वंद्व भी रहेंगे, जन्म और मरण का चक्र भी रहेगा। इस अविवेक की औषधि केवल समाधि है। समाधि द्वारा चेतन-अचेतन भेद का साक्षात्कार जब आत्मा को हो जाता है तब अविवेक की गुंजाइश ही कहां रह जाती है? अविवेक गया तो प्रकृति से संपर्क भी गया। प्रकृति से संपर्क गया तो अपवर्ग मिला। कितना साम्य है इस प्रक्रिया का ‘योग’ दर्शन के तरा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् के तात्पर्य के साथ।
न्याय शास्त्र समाधि की सत्कार्यता के लिए यम-नियमों पर विशेष बल देता है। वेदांत दर्शन मन को समाहित करने के लिए ध्यान सहित कई योगांगों का प्रतिपादन करता है। इसके अतिरिक्त हम प्राचीन साहित्य में भी योगानुष्ठान का महती निदर्शन पाते हैं। महाभारत के अनेक प्रकरणों विशेष तथा शांति पर्व, अश्वमेध पर्व तथा अनुशासन पर्व में योग विषयक महत्वपूर्ण सूचनाएं हैं। महाभारत की अंतर्वर्ती गीता तो ‘योग’ विषयक अनेक क्रांतिकारी परिभाषाओं और घोषणाओं का जीवंत दस्तावेज ही है। ‘योग’ शब्द को नए-नए संदर्भों में प्रयुक्त कर योगाचार के क्षेत्र और उसके आधारों को जैसा विस्तार और स्वरूप गीता ने दिया है वह सचमुच युगांतकारी है। ‘योग’ की परिभाषा एवं योगचर्या और उसके अंतर्निहित तत्वों-तप, कर्म, स्वाध्याय, ध्यान, एकाग्रता, अभ्यास, वैराग्य, आहार, विहार, दिनचर्या आदि का जैसा मनोरम, सरस और प्रवाहशील विवरण हमें गीता में मिलता है वह अन्यत्र दुर्लभप्रायः ही है। ज्ञान योग, कर्मयोग, भक्तियोग, राजयोग आदि के रूप में योगचर्या के बहुआयामी रूप का हम गीता में पर्याप्त विस्तार पाते हैं।
पुराण भारतीय साहित्य की सबसे विवादास्पद कृतियां हैं। पुराणों पर भारतीय धर्म और दर्शन को अपकर्ष की ओर ले जाने का आरोप अनेक विद्वान, सुधारक और समीक्षक लगाते रहे हैं। पुराणों में भी हमें योग विषयक संदर्भ बहुलता से मिलते हैं, परंतु इन आरोपों से यह भी विमुक्त न रह सके हैं। वायु, शिव, ब्रह्म, गरूड़, विष्णु, अग्नि तथा लिंग पुराण के ‘योग’ संदर्भ विशेष उल्लेख हैं। गरूड़ पुराण के चौदहवें अध्याय का ध्यान-योग वर्णन, अग्नि पुराण का क्रियायोग वर्णन, विष्णु पुराण का यम-नियमादि अष्टांग योग विवरण किसी भी अध्येता को सहज ही आकर्षित करते हैं। वायु पुराण का दशम् अध्याय हमें योगांगों से होने वाली हानि-लाभ से परिचित करवाता है। परंतु सतत ध्यातव्य है कि बहुत बार ये संदर्भ अति विस्तृत और असंबद्ध भी बन गए हैं।
ऐसे से हुई थी महात्मा गांधी की हत्या
- जयशंकर मिश्र ‘सव्यसाची’
विभागाध्यक्ष - योग संदेश विभाग
नोआखाली में आमकी नाम का एक गांव है। वहां महात्मा गांधी के लिए बकरी का दूध कहीं न मिल सका। श्रीमनु बहिन ने कहा- ‘सब तरफ तलाश करते-करते जब मैं थक गयी, तब आखिर मैंने बापू को यह बात बतायी। बापूजी कहने लगे- ‘तो इससे क्या हुआ? नारियल का दूध बकरी के दूध की जगह अच्छी तरह काम दे सकता है और बकरी के घी के बजाय हम नारियल का ताजा तेल निकालर खायेंगे।
बापूजी बकरी का दूध हमेशा आठ औंस लेते थे, उसी तरह नारियल का दूध भी आठ औंस ही लिया। यह घटना 30 जनवरी 1947 के दिन की है। बापू की हत्या के ठीक एक साल पहले।
‘रामनाम’ में बापू की श्रद्धा जीवन के आखिरी क्षण तक कायम रहीं 1947 की 30वीं जनवरी को यह घटना घटी और 1948 की 30 जनवरी को बापू ने श्रीमनु बहिन से कहा कि- ‘आखिरी दम तक हमें रामनाम रटते रहना चाहिए। इस तरह आखिरी वक्त भी दो बार बापू के मुँह से रा...म। रा...म। सुनना मेरे ही भाग्य में बदा होगा। इसकी मुझे कल्पना थी? ईश्वर की गति कैसी गहन है।
मानवता के अनन्य पुजारी की पाशविक हत्या दिल्ली में 30 जनवरी 1948 की शाम 5 बजकर 5 मिनट पर उस वक्त की गयी जब वह बिडला भवन से निकलकर प्रार्थना सभा की ओर टहलते हुये जा रहे थे। बापू जी अपनी दो पोतियों के कंधें पर सहारे के तौर पर हाथ रखे चले जा रहे थे। तभी स्थल पर पहुँचने पर उपस्थित लोगों की भीड़ दो भागों में बंट गयी, ऐसा गांधी जी को मंच तक पहुँचने के लिए हुआ। इसी भीड़ में से एक युवक कोई दो गज के फासले पर खड़ा था। 30-35 वर्षीय इस युवक ने रिवाल्वर निकालर चार फायर किये। महात्मा जी के पेट में गोली लगी। ‘हे राम’ उनके मुख से निकला और वहीं उनका प्राणांत हो गया।
महात्मा गांधी पर गोलियां चलाये जाने के समय उपस्थित एसोसियेटेड प्रेस के प्रतिनिधि का कहना था कि जब गांधी मंच से पन्द्रह गज की दूरी पर थे तो मैंने अपने से दो गज आगे पर गोली छूटने की आवाज सुनी, जिस व्यक्ति ने गोली चलायी, उसे मैंने देखा। उसके दाहिने हाथ में रिवाल्वर तना हुआ था, इसके बाद ही तीन बार और गोली चली, प्रतिनिधि का कहना था कि मैंने गांधी जी को मूर्च्छित होते देखा, ऐसा जान पड़ा कि उनके पेट में गोलियां लगी हैं। उनके शरीर से रक्त बहते और धवल धोती को रक्तरंजित होते देख मैं स्तम्भित हो गया। तुरन्त ही भगदड़ मची और मैं भी एक क्षण के लिए किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। तुरंत ही आक्रमणकारी के पीछे उपस्थित व्यक्ति उस पर टूट पड़े और उसकी कलाई पकड़ ली। उसका रिवाल्वर छूटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। आक्रमणकारी फौजी ढंग की एक कमीज और पतलून पहने था। पहरा देने वाली पुलिस ने उसे अपनी हिरासत में लिया।
मृत्यु के समय गांधी जी ने यही चश्मा पहन रखा था। |
प्रतिनिधि का कहना था कि मैं दौड़कर उस स्थान पर गया जहां गांधी जी गिरे थे, मैंने गांधी जी को खून से लथपथ होते देखा, उनके नेत्र बंद थे, उनका सिर झुक गया था, उनके दोनों हाथ पास-पास थे, मानों वे प्रार्थना कर रहे हों। उनकी पोतियों ने उन्हें थामकर बैठाया। तुरंत ही चार पांच व्यक्ति महात्मा गांधी को बिड़ला भवन ले गये जिस कमरे के भीतर गांधी जी ले जाये गये उसके दरवाजे बंद कर दिये गये और किसी भी दर्शक को उसके भीतर नहीं जाने दिया गया। प्रतिनिधि का कहना था कि मैं बिड़ला भवन में उपस्थित उत्सुक जनता के बीच खड़ा प्रतीक्षा करता रहा। 5.35 बजे मैंने बसंतलाल को मकान के बाहर आते देखा और मैंने उससे पूछा गांधी जी कैसे हैं? उन्होंने उत्तर
गांधी जी ने अंतिम श्वास यहीं ली थी |
दिया कि गांधी जी अभी जीवित हैं। 5 मिनट बाद ही गांधी जी का एक अनुयायी उदास और शोक संतृप्त मुद्रा में गांधी जी के कमरे से बाहर आया और उसने कहा ‘बापू स्वर्ग सिधार गये।’
महात्मा गांधी के अन्त्येष्टि संस्कार के समय का दृश्य बहुत ही कारुणिक था, अन्त्येष्टि के समय पं. नेहरू और राजेन्द्र बाबू फूट-फूटकर रो पड़े, अर्थी के साथ दस लाख बिलखते नर-नारियों की भीड़ थी। महात्मा गांधी की हत्या के षडयंत्र में बम्बई की पुलिस ने पांच व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लिया था। इसके बाद 1 फरवरी को कानपुर के कुछ भागों में दंगा हो गया था। कई स्थानों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्यों तथा जनता के बीच संघर्ष हुये। सारे नगर में कर्फ्यू जारी कर दिया गया था तथा फौज बुला ली गयी थी। 12 फरवरी को देश विदेश के प्रमुख तीर्थ स्थानों में गांधी जी की अस्थियां प्रवाहित कर दी गयीं।
अपना खून
रंजना काफी दिनों से बीमार थी और आज मर गयी। आश्रम के सभी लोग स्तब्ध थे। मैं पहली बार आश्रम में रहने वाली एक औरत की मौत देख रही थी क्योंकि मुझे आश्रम में आये हुए कुछ ही महीने हुए थे। एक महीने से रंजना मेरे काफी निकट आ गयी थी। वैसे तो यहां की हर औरतों की आंखों में दर्द तैरता है लेकिन रंजना की आंखें जैसे दर्द ही उगलती थी।
रंजना को दो बेटे थे। दोनों को वह न जाने कितने पत्र लिख चुकी थी पर कोई भी उससे मिलने नहीं आया। एक दिन उसने भीगे कण्ठ में मुझसे कहा- ‘देख लेना पुष्पा, हमारे बेटे मेरे मरने पर हमें आग देने भी नहीं आयेगें।’
आश्रम के संचालकों द्वारा रंजना के मरने की खबर उसके दोनों बेटों को दी जा चुकी थी परन्तु कोई नहीं आया। मैं भीतर तक कांप उठी थी, सामने रंजना की लाश पड़ी थी।
अब कितना इन्तजार करें, चलो शमशान चलते हैं। आश्रम के कर्मचारी आपस में बात कर रहे थे। हाँ, अब इसके बेटों की प्रतीक्षा करना बेकार है, चलो उठाओ लाश। थोड़ी ही देर में राम नाम सत्य है कि आवाज गूंजने लगी। मुझे लगा जैसे रंजना की जगह मैं हूँ और सब मेरे बेटे प्रकाश के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, पर प्रकाश नहीं आया। अंत में मुझे चार लोग अपने कंधें पर उठा लेते हैं। आश्रम की सभी औरतें अपने आंसू पोछती हैं। रंजना के रूप में मुझे अपने जीवन का अंतिम कड़वा सच, उजागर होता हुआ दिखाई दे रहा था। मुझे लगा जैसे रंजना की मौत ने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। मैं एकाएक चीख उठी। सब लोग मेरी ओर देखने लगे लेकिन मैं चीखती ही जा रही थी, नहीं, मुझे मत जलाओ, मेरा बेटा प्रकाश आयेगा। वही मुझे आग देगा। बेटा ही तो मां-बाप की चिता को आग देता है न?
क्या मेरा इतना भी हक नहीं है कि अपने बेटे से थोड़ी सी आग भी मांग सकूं। सब मेरी ओर बढ़कर मुझे शांत करने में लगे थे पर मैं रोती जा रही थी। मुझे खुद पता नहीं कि मैनें दुःख की अतिरेक में कब अपने कपड़े तार-तार करने शुरु कर दिए थे।
‘अरे, ये बुढ़िया हो पागल हो गयी।’ किसी का स्वर उभरा था।
हाँ, मैं पागल हो गयी हूँ, मैं पागल हो गयी हूँ। मैं अपने बालों को खींचती हुई जोर-जोर से बोल रही थी और उसके बाद मैं अचेत हो गयी।
सूर्योदय के साथ दिन निकला उसी के साथ सामान्य दिनचर्या शुरु हो गयी। पूरे दिन के एक क्षण में ऐसा भी कुछ घट जाता है जिससे उस व्यक्ति की पूरी दुनिया ही बदल जाती है। कल की वेदना और संत्रास के जाल से मैं मुक्त नहीं हो पायी थी। जिन्दगी भी न जाने कितनी लम्बी होती है कि खत्म होने का नाम नहीं लेती। न जाने कितने प्रसंग, दर्द की तहों में बंद हैं।
मैं नहीं चाहती कि किसी भी एक दर्द की तह को खोलूं पर मेरे चाहने और न चाहने से क्या होता है। अब जब उम्र के एकदम आखिरी मुकाम पर पहुंच गयी हूँ तो पिछली सारी दर्द की तहें जैसे एक-एक करके खुल जाना चाहती हैं, क्यों? इसका उत्तर मेरे पास नहीं है। कभी अपना चेहरा आइने में देखती हूँ तो मुझे स्वयं अपने पर तरस आता है। मैंने कहां से अपना सफर शुरु किया था और आज मैं कहां पहुंच गयी?
मैं आश्रम में बैठी हूँ सारी औरतें सो गयी हैं। सबकी आंखों में नीरवता और सूनापन कैद है। न जाने इनको नींद कैसे आ जाती है। शायद ये अपने सूनेपन, एकाकीपन और नीरवता को नियति समझ कर खामोश बैठ गयी हैं लेकिन मैं यहां नयी-नयी आयी हूँ। कुछ ही महीनें हुए मेरा बेटा प्रकाश मुझे यहां छोड़ गया है। प्रकाश जब मुझे आश्रम में छोड़ने आया था तब मैनें उसके चेहरे को ध्यान से देखा था, मुझे यहां छोड़ने का जरा भी दुःख उसके चेहरे से नहीं झलक रहा था बल्कि एक निश्चितता का भाव दिख रहा था। ये चेहरा भी मन के सारे भाव किस कदर खोलकर रख देता है।
मां तुम तो जानती है न मेरी मजबूरी। अब रजनी किसी तरह का समझौता नहीं करना चाहती। मैंने उसे समझाया लेकिन.....
रहने दे मैंने बीच में ही प्रकाश की बात काट दी थी, क्या करती उसकी बात सुनकर। आखिर वह भी क्यों अपने मन की सफाई देना चाहता है। जो हो गया सो हो गया। मुझे आश्रम में आना था, मैं आ गयी। शायद यही मेरा अन्तिम पड़ाव है।
तूं मुझसे मिलने आया करेगा न प्रकाश। मेरा प्रश्न सुनकर प्रकाश एक क्षण के लिए रूका। मैंने साफ अनुभव किया कि वह हिचक रहा था पर दूसरे ही क्षण वह बोल उठा-‘आऊंगा मां, तू चिन्ता मत करना।’
लगभग तीन महीना व्यतीत हो गया है, इस आश्रम में मुझे आये हुए परन्तु वह दोबारा लौटकर नहीं आया। मैं अक्सर अपने कमरे की खिड़की से सड़क की तरपफ देखती रहती हूँ। न जाने कितने चेहरे इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं लेकिन मेरी आंखें जिस चेहरे को देखना चाहती हैं वह चेहरा इन तमाम चेहरों में कहीं नजर नहीं आता। आंखें सड़क की तरपफ टकटकी लगाए रहती हैं लेकिन कहीं प्रकाश नजर नहीं आता।
आज इतनी रात हो गए मुझे अपना बचपन याद आ रहा है। कहते हैं बचपन बड़ा सुन्दर होता है। हजारों चिन्ताओं से मुक्त, खेल-खिलौने, पर मेरे हिस्से में कुछ नहीं था। मेरे हिस्से में था तो स्कूल जाने से पहले और लौटने के बाद घर गृहस्थी का भारी बोझ। जब मैं बड़ी हुई, कालेज जाने लगी तो मन इन्द्रध्नुषी सपने बुनने लगा। यथार्थ के धरातल से पैर उखड़ कर आसमान की ओर भागने लगे।
वह पल भी आया, जब मेरे सपनों के साकार होने की बारी आयी। दुलहन बनकर मैं ससुराल गयी। वहां जाकर सपनों के टूटने का अहसास हुआ। मुझे जाते ही पता चल गया कि मेरे पति एक दूसरी औरत के प्यार में डूबे हैं, यह बात उन्होंने पहली ही रात बता दी। उन्होंने अपने मां-बाप की मर्जी को रखते हुए मुझसे शादी कर ली। जब तक सास-ससुर जिन्दा थे। बहू-बहू कहकर दुलार दिखाते रहे, मेरे पति भी बनावटी प्यार करते रहे। सास-ससुर की मौत के बाद मेरे पति दूसरी औरत को घर पर लाने लगे। तब तक मेरा प्रकाश एक वर्ष का हो चुका था।
मेरा पति तो मेरा नहीं हो सका लेकिन मेरा बेटा मुझसे दूर न हो जाय यह डर हमेशा लगा रहता था। मेरे पति अक्सर उस स्त्री को लेकर घर आ जाते मुझसे खाना बनवाते और आवभगत करवाते। अपने दिल को पत्थर बनाकर जिया मैंने, आज मैं सोचती हूँ कि किसके लिए मैंने सब कुछ सहा, इसीलिए कि मेरा बेटा मुझे आश्रम में लाकर पटक दे।
मैं जब तक घर का सारा काम करती थी। बच्चों को संभालती थी, तब तक प्रकाश और उसकी पत्नी मुझे मां-मां करते रहे लेकिन जब मेरी शरीर की शक्ति चुक गयी तब उनके लिए मैं बोझ बन गयी और मुझे आश्रम में डालकर चला गया मेरा बेटा। मेरे साथ उसकी पत्नी बदसलूकी करती और वह दूर खड़ा तमाशा देखता, तो मेरे मन में आता कि पगले किससे तू दूर भाग रहा है जिसने तुझे नौ महीने अपनी कोख में रखा, जिसका खून तुम्हारे शरीर में दौड़ रहा है।
पति तो मेरा कभी नहीं हो सका परन्तु प्रकाश तो मेरा खून है उसे मैंने अपने खून से पाला है। तू तो मेरा अपना था, तू क्यों मुझे आश्रम में छोड़कर चला गया। मेरी, तेरी पत्नी से कोई लड़ाई नहीं थी मैं घर के सभी काम काज करती थी परन्तु आज जब मैं अशक्त हो गयी तो मेरे साथ परायों जैसा व्यवहार होने लगा। मेरे मन में उद्वेग बढ़ने लगा मन के भीतर मुक्ति की चाह प्रबल होने लगी। मुझे अपने से भी नफरत होने लगी। कहा जाता है न कि जब दुर्दिन आते हैं तो अपना खून भी साथ नहीं देता और साया भी साथ छोड़ देता है। मेरे साथ भी ऐसा हुआ, मेरे खून ने ही मेरा साथ छोड़ दिया। अब तो आश्रय ही मेरा पड़ाव है, यहीं जीना है और यहीं मरना है।
बदलती संस्कृति और भारत
किसी भी देश के अस्तित्व में तीन तत्व सहायक होते हैं- धर्म, संस्कृति और इतिहास। धर्म उस देश का मस्तिष्क, संस्कृति हृदय और इतिहास पांव के रूप में माना गया है। भारत के ऋषि-मुनियों ने ऐसे धर्म की रचना की है जिससे इस भूमि पर धर्म का अवलंबन लेकर असंख्य लोग सिद्ध हो गये। इन दिव्य आत्माओं के कारण ही भारत का गौरव चतुर्दिक फैला भारत जगत गुरु बना।
भारतीय संस्कृति एक ऐसी अनोखी अपूर्व शक्ति और जीवन दर्शन है जो भौगोलिक सीमाओं में सदियों से अनवरत प्रवाहित है। अनुकूल तथा विषम परिस्थितियों ने इस संस्कृति के बाह्य रूप को अत्यधिक प्रभावित किया किन्तु जीवनदायिनी आन्तरिक ऊर्जा का प्रवाह यथावत रहा। भारत में लोगों ने समय-समय पर अपने खानपान तथा पहनावा में परिवर्तन तो किये परन्तु धर्म और दर्शन का महत्व, संस्कृति और संस्कारों के प्रति प्रतिबद्धता तथा नैतिक मूल्य कभी नहीं परिवर्तित हुए।
संस्कृति का विचार करते समय हमें बुद्ध पूर्व काल में जाना पड़ेगा और यह देखना पड़ेगा कि उस समय भारतीय संस्कृति का स्वरूप कैसा था? वैदिक संस्कृति का मुख्य तत्व ‘सर्व आनन्द मय’ है जबकि बौद्ध संस्कृति का मुख्य तत्व ‘सर्वं दुःख मयं’ है। शेष तत्व भी इसी प्रकार परस्पर विरोधी है। फिर इन दोनों परस्पर विरोधी संस्कृतियों का समन्वय किस तरह हो सकता है? वैदिक धर्म के अनुयायी विश्व रूप को परमेश्वर मानकर और विश्व को आनन्दमय समझकर अनन्यभाव से विश्वरूप की सेवा करते हैं। इसके विपरीत बौद्ध विश्व को दुःखमय मानकर उसको छोड़ने का प्रयत्न करते हैं। फिर इन दोनों संस्कृतियों का समन्वय कैसे होगा? यह विचारणीय मुद्दा है।
अहं की प्रतिष्ठापना के उद्देश्य से स्थापित मत, पंथ एवं सम्प्रदायों में उलझा व्यक्ति, कुछ झूठे आग्रहों एवं अंधविश्वासों में कुंठित होकर सत्य से वंचित रह जाता है जब कि मत-मतान्तर के आग्रह से रहित ऋषि प्रतिपादित कर्मों से व्यक्ति मिथ्या आग्रहों से रहित होकर परम सत्य का दर्शन करने लगता है भारत की प्राचीन संस्कृति योग के कारण भी गौरवमयी रही है। हमारी प्राचीन सभ्यता में योगी होना उच्च प्रतिष्ठा समझा जाता था। भारतीय संस्कृति का मूलभूत सिद्धान्त है अध्यात्म अर्थात् आत्मा संबंधी विचार धारा। भारतीय अध्यात्म का मूल स्रोत है यथार्थ ज्ञान अर्थात् वेद। वेद, उपनिषद् और गीता भारतीय संस्कृति के मूल तत्व हैं। भारतीय संस्कृति के प्रति छेड़छाड़ या भ्रम की स्थिति फैलाना उचित नहीं है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के होने या न होने के प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। इसी तरह योग से भी साध्य तथा असाध्य व्याधियां दूर हो रही हैं। योग एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है इसे भी किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। ऋषि परम्परा से प्राप्त यह ज्ञान वैज्ञानिक है। हमारे ऋषि-महर्षि किसी भी वैज्ञानिक से कम नहीं थे। इसके पर्याप्त प्रमाण हमें मिलते हैं। हमारा अतीत सुनहरा था। हम विश्व क्षितिज पर चमकते सूर्य थे।
भारतीय समाज व्यापक अर्थों में वास्तव में एक सनातनी, सभ्य समाज है जो हर कोशिश के बावजूद अपनी पुरानी हर अच्छी, बुरी मान्यताओं से चिपका रहता है। यह समाज शिक्षा, बौद्धिक, मानसिक विकास तथा आर्थिक सम्पन्नता के असंख्य स्तरों, स्थितियों और टापुओं में बंटा हुआ है। निकृष्टतम छुआछूत, अन्धविश्वास, आत्मघाती कुरीतियों के साथ श्रेष्ठतम दार्शनिक चिन्तन और अन्तरिक्ष विज्ञान में अनुपम उपलब्धियों वाला अत्यध्कि जटिल समाज है।
काल के प्रवाह में निष्फल हो चुकी आत्मघाती पुरातन परम्पराओं में स्वयं को जकड़े रखकर सुरक्षित महसूस करने वाले इस समाज के लिए विदेशी चैनलों द्वारा प्रसारित कार्यक्रमों को सांस्कृतिक आक्रमण निरुपित किया जा रहा है। पाश्चात्य सभ्यता और जीवन दर्शन को महिमा मंडित करने वाले कार्यक्रमों द्वारा फैलाये जा रहे सामाजिक और मानसिक प्रदूषण के खतरे की लम्बे समय से चर्चा हो रही है किन्तु इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किये गये हैं।
सूचना क्रांति की नयी प्रौद्योगिकी ने भूगोल की दूरियां और समय के अंतराल को मिटा दिया है। उपग्रह से सम्प्रेषित सिग्नलों को अपनी सीमा में प्रवेश करने से रोकना तकनीकी दृष्टि से संभव नहीं है। आज की उपभोक्तावादी संस्कृति में प्रतियोगिता की अंधी दौड़ में हर छोटा-बड़ा जाने अनजाने शामिल है। क्योंकि यही आज जीने का ढंग है। बढ़ती हुई फैशन परस्ती ने तरह-तरह के कास्मेटिक और कपड़ों से बाजार भर दिये हैं। कोई भी प्रोडक्ट बाजार में चल पड़ता है बशर्ते उसका खूब जोर-शोर से विज्ञापन हो।
एक कड़वा सच है कि जिस देश को अपनी संस्कृति पर नाज था वह उसकी महत्ता को नजर अंदाज कर भौतिकवादी पाश्चात्य सभ्यता की अंधी नकल करने में लगा हुआ है। जबकि भौतिक संस्कृति के पुजारी पाश्चात्य संस्कृति के अनुयायी उसका खोखलापन समझने के बाद भारतीयता की सादगी और अध्यात्म की ओर आकर्षित हो रहे हैं।
भोगवादी संस्कृति की प्राण है-विज्ञापन कला। विज्ञापन की दुनिया जो फिल्म बनाती है वह भी फिल्मों की तरह ही ग्लैमरस और चकाचौंध से भरपूर होती है। इसका नशा बच्चों पर छा जाता है। ज्यादातर विज्ञापन पाश्चात्य विज्ञापनों के पैटर्न पर ही मिलेंगे-वही परिधान, वही पाश्र्वधुन और वही भाव भंगिमाएं। नारी देह का जितना बेशर्म, भौंडा प्रदर्शन इन विज्ञापनों में देखने को मिलता है उसकी इन्तिहा नहीं।
देश में बढ़ रही अश्लिलता पर रोक नहीं लगी तो पूरा देश पश्चिम की तरह अराजकता का शिकार हो जायेगा। यौन शिक्षा को प्रोत्साहित करने वाले पहले देख लें कि पश्चिमी जगत पर स्वच्छन्द यौनाचार का क्या प्रभाव पड़ा? स्कूलों में पढ़ने वाली छात्राओं के गर्भवती होने का प्रतिशत पश्चिम में 20 तक पहुँच गया है। सेक्स के मामले में बेहद खुलेपन से परिवार टूट रहे हैं, यौन रोग उत्कर्ष पर है और नैतिक मूल्यों का क्षरण हो रहा है। भारतीय समाज तथा परिवार की यदि पश्चिमी समाज तथा परिवार से तुलना की जाय तो दोनों में बुनियादी फर्क नजर आयेगा। इस अंतर को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। इससे भारतीय संस्कृति को काफी हानि उठानी पड़ी।
आज की भयावह परिस्थितियों में आचार-संहिता और नैतिक मूल्यों का क्षरण तेजी से हो रहा है इस पर अविलम्ब रोक लगाने के लिए हमें वेदों और ऋषि परम्परा की ओर रुख करना ही पड़ेगा। भूमंडलीकरण के नाम पर भारत में पश्चिमी सभ्यता की आंधी को आने से रोकना पड़ेगा। घातक हथियारों और अनावश्यक दवाओं का व्यापार बंद हो। धर्म, जाति, भाषा, वर्ण, लिंग, मजहब तथा वर्ग के नाम पर विघटित भारत एकता की रस्सी में बंधकर एकाकार हो जाय।
21वीं सदी के भारत में आवश्यकता है ‘पतंजलि के जीवन दर्शन की’। महर्षि पतंजलि कहते हैं तुम अपने भाग्य के स्वयं निर्माता हो। विवेक और दृढ़ता के साथ संघर्ष करो, तुम्हारे भीतर अपार शक्ति है, तुम अपने पुरुषार्थ से भाग्य को भी बदल सकते हो। आज के परिवेश में जीव अपना अस्तित्व खोता जा रहा है। भविष्य की आधरशिला है, तुम जहां खड़े हो प्रतिपल प्रतिबद्धता के साथ संघर्ष जारी रखो, तुम्हारे भीतर ही ऊर्जा का स्रोत है। ऋतम्भरा की प्रखर-प्रज्ञा भी ध्यान से मिलेगी। ज्ञान, सुख-शांति और आनंद भी तुम्हारे भीतर है। निरन्तर अभ्यास और वैराग्य (विवेक) से जिस दिन तुम अपने अधिष्ठान में अवस्थित हो जाओगे कि तुम पाओगे कि सब कुछ तुम्हारे भीतर ही है। जैसे कस्तूरी मृग अपनी ही नाभि की दिव्य सुगन्ध का केन्द्र, बाहर मानकर भटकता है वैसे ही ऐ मानव! तूने अपना केन्द्र बाहर बना लिया है। जिस दिन तू अपने केन्द्र से, अस्तित्व से, चेतना से जुड़ जायेगा तो तुझे महसूस होगा कि तू पूर्ण है। सब कुछ तेरे पास है। इसलिए पतंजलि कहते हैं अज्ञान में उतरकर ज्ञान के द्वार खुलते हैं, निर्विचार स्थिति में पहुंचकर दिव्य विचार अवतरित होते हैं। पूर्ण मौन में समाधन निकलता है। गीता, वेद, पुराण दर्शन, उपनिषद, बाइबिल, कुरान तथा गुरुग्रंथ साहब का पवित्र ज्ञान तेरे ही भीतर है। भीतर नीरसता नहीं सरसता है। तुम एक बार समर्पण करके देखो तो सही। कब से तेरे भीतर रूपान्तरण घटित होना चाह रहा है। तुम इसे स्वीकार ही नहीं कर रहे हो। भारत के हंसते-खिलखिलाते उज्जवल भविष्य में न रोग हो, न गरीबी, न कटुता, न झूठ, न फरेब। भारत में सभी स्वावलम्बी, कर्मनिष्ठ तथा हर स्तर पर ईमानदार हों और भारत पुनः जगतगुरु कहलाये, यही मेरी अभिलाषा है।
सम्पर्क सूत्र: जयशंकर मिश्र ‘सव्यसाची’, पतंजलि योगपीठ, महर्षि दयानन्द ग्राम, दिल्ली-हरिद्वार राष्ट्रीय राजमार्ग, निकट बहादराबाद, हरिद्वार-249402, उत्तराखण्ड
सोमवार, 27 सितंबर 2010
‘कुम्भ’ की वैज्ञानिकता’
कुम्भ के अवसर पर पंचपुरी देवनगरी हरिद्वार के गंगा जल में डुबकी लगाने की उद्दाम लालसा आदिकाल से ही भारतीय जन मानस में है। शास्त्रों और पुराणों में ऋषियों ने मुक्तकंठ से इस महापर्व की अर्भ्यथना की है। कुम्भ पर अमृत हो जाने वाले गंगा जल के आचमन के लिए दुनिया भर से आये करोड़ों श्रद्धालु गंगा के तट पर एकत्रित होते हैं। कुम्भ के इसी आध्यात्मिक और सामाजिक महत्व का दिग्दर्शन करते हुए हम ‘योग कुम्भ’ के संदर्भ में भी विचार करेंगें।
काल खंड की निश्चित अवधि में नैसर्गिक भूखंड पर प्रत्यक्ष प्रवाहित गंगा भावोत्प्रेरक यमुना और अज्ञात विलीन सरस्वती का कुम्भ,अर्द्धकुम्भ और महाकुम्भ के आयोजन में देश और देशान्तर से उपस्थित लोग कर्म,भक्ति एवं ज्ञान की शिक्षा ग्रहण करते हैं।
‘कुम्भ’ की उत्पत्ति के विषय में पौराणिक आख्यानों पर दृष्टिपात करें तो कई कथाएं प्रचलित हैं, जिनमें महर्षि दुर्वासा की कथा एवं समुद्र मंथन की कथा का अत्यधिक महत्व है। कथासार के अनुसार देव और दानवों के बीच अमृत से भरे घड़े को लेकर हुए संघर्ष के दौरान दैत्य अमृतपान न कर सकें इसलिए घड़े को लेकर भागे देव पक्ष के लोगों ने चार जगहों पर घड़े को रखकर युद्ध किया था। अमृत जमीन पर गिरा जिसके परिणाम स्वरूप कुम्भ का आयोजन प्रयाग, उज्जैन, नासिक और हरिद्वार में होता है।
कुम्भ की उत्पत्ति के पश्चात 12वर्षों पर इसके आयोजन के पीछे ग्रहों की स्थिति योग को महता दी गयी है। बृहस्पति 12 वर्षों में एक बार बारहों राशियों का भ्रमण करते हैं जबकि सूर्य 12महिनों में अपना परिपथ पूरा करते हैं। जब सूर्य का एक परिपथ पूरा होता है तब माघ महीने का स्नान अमावस्या के दिन होता है। उस दिन चन्द्रमा भी सूर्य की राशि में ही होता है तथा जब बृहस्पति अपना एक परिपथ पूरा कर 12वें वर्ष में वृष में आता है तब यह आयोजन होता है।
इस संदर्भ में वैज्ञानिक धारणा यह है कि सूर्य के भीतर जो रासायनिक परिवर्तन होते हैं उनका क्रम भी लगभग 12वर्ष का ही होता है। जलपूरित घट मांगलिक माना जाता है। आज भी समस्थ प्रकार के पूजन में जल से भरे घड़े का ही पूजन किया जाता है जिस पर समस्त देवों का आह्वान कर पूजार्चन किया जाता है।
‘कुम्भ’ घट का पर्याय है, घट देह का पर्याय है जिसमें अमृत रस रूपी आत्मा व्याप्त है। देह-आत्मा का मिलन ही सृष्टि का संयोजन करता है। देह-आत्मा के स्वरूप को जानने के मार्ग अलग-अलग हो सकते हैं जो मोह या अज्ञान से आच्छादित रहता है। इसी ज्ञान की प्राप्ति के लिए भक्ति,कर्म एवं ज्ञान मार्ग का अनुसरण होता है जबकि सभी मार्गों का अन्त ज्ञान में ही होता है। ‘सर्वाकर्माखिलं पार्थे परिज्ञाने सम्पाप्ते’ (गीता) आच्छादित ज्ञान को देह से आत्मा का संबंध, अद्वैत का ज्ञान ही भारतीय दर्शन का मूल है जिसकी प्राप्ति के लिए वैज्ञानिक निरूपण किया गया। कालान्तर में ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’के हितार्थ इसे जोड़ दिया गया।
स्वर्ग-मोक्ष की कामना से देवभूमि हरिद्वार की पावन भूमि पर इतनी बड़ी संख्या में लोगों के एकत्रित होने के पीछे सिर्फ धार्मिक भाव ही है या अन्य कोई वैज्ञानिक कारण भी, यह एक शोध का विषय है।
माघ महीने में अमावस्या के दिन जब सूर्य मकर में एवं बृहस्पति वृष में होता है उस समय पृथ्वी की स्थिति कैसी होती है, क्या उसके गुरूत्वाकर्षण शक्ति में किसी तरह का विक्षोभ उत्पन्न होता है या नहीं यह भी शोध का विषय है।
श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास ने तो पद्म पुराण में यहां तक कहा है कि यदि कोई श्रद्धालु माघ भर स्नान करने में असमर्थ है तो वह मकर सक्रांति,मौनी अमावस्या तथा वसंत पंचमी –इन तीनों पर्वों पर स्नान करके उतना ही पुण्य प्राप्त कर सकता है। यद्यपि 14, 15, 20 और 30 जनवरी 2010, 12, 15, 24 फरवरी और 30 मार्च, 14 और 28 अप्रेल 2010 तक कुल दस स्नान हैं परन्तु 12 फरवरी महाशिवरात्री, 15 मार्च और 14 मार्च बैसाखी के दिन तीन शाही स्नान हैं। लेकिन 14 मार्च को प्रमुख शाही स्नान माना जा रहा है।
इडा-गंगा-चन्द्र,पिंगला-यमुना-सूर्य तथा सुसुम्णा-सरस्वती-अग्नि-अमृत जो इन तीनों नाड़ियों का संगम स्थान है वही कुण्डलिनी शक्ति का मूल स्रोत मूलाधार चक्र तथा मूलबन्ध लगाने का स्थान भी है। इन सभी महाशक्तियों का केन्द्र होने से इसे ‘शक्ति स्थल’ भी कहा जाता है।
मानव शरीर में स्थित भौहों के मध्य में आज्ञा चक्र को जगाकर अपने शरीर में ही कुम्भ स्नान का लाभ उठा सकते हैं।
कुम्भ स्नान मुक्ति का धाम माना गया है। अपना पूरा ध्यान भ्रूमध्य-आज्ञा चक्र पर ही टिका लें। एक ओर से श्वेतवर्णी गंगा और दूसरी ओर से नीले कृष्ण रंग की यमुना आकर यहाँ मिल रही हैं। ठीक उसी समय सरस्वती भी इस मिलन से संगम के महत्व को बढ़ा रही है।
मनुपुत्र मस्ती में भरकर जय गंगे,जय यमुने और जय सरस्वती बोलकर जब गोते लगाते हैं। जय गंगे-जय यमुने-जय सरस्वते......... जब ध्यान हटा, शरीर पर हाथ रखा तो हाथ कपड़ों पर पड़ा तो बिल्कुल सूखे थे। परन्तु तीनों माताओं ने मनुपुत्र के मन को धो-धोकर इतना पवित्र कर दिया कि मनुपुत्र फिर उसी ध्यान में डूब गया और गोते लगाने लगा। मनुपुत्र निहाल हो गया, यह मानसिक स्नान है, जो वास्तविक स्नान से भी अधिक महत्वपूर्ण है, आनन्ददायी है।
कई बार हम गंगा में वास्तविक रूप से नहा रहे होते हैं,परन्तु मन का स्नान न होने से स्नान का फल नहीं ले पाते। परन्तु इस मानसिक स्नान से ही सभी पापों से मुक्त होकर मुक्ति की ओर बढ़ते हैं। ऐसा योगी ब्रह्माज्ञानी होता है। इसलिए मानव को भ्रूमध्य में मन केन्द्रित कर-प्रभु का ध्यान करना चाहिए।
केन्द्र और राज्य सरकार के तमाम विभागों के अथक प्रयासों ने देवभूमि हरिद्वार के विशाल मेला परिक्षेत्र को सजाया-संवारा है। करोड़ों श्रद्धालुओं को हर संभव सुविधा उपलब्ध कराने के चुनौती पूर्ण लक्ष्य के लिए पूरी सरकारी मशीनरी सालों से युद्धस्तर पर सक्रिय थे। विश्व का यह सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन ‘कुम्भ’ मेला क्षेत्र 130 वर्ग किमी. में फैला हुआ है। इसमें हरिद्वार, ऋषिकेश,मुनि की रेती और स्वर्गाश्रम का क्षेत्र शामिल है। वर्ष 2010जनवरी माह से अप्रैल के मध्य हरिद्वार में ‘पूर्ण कुम्भ मेला’ में लगभग चार से पांच करोड़ श्रद्धालुओं के स्नान करने की संभावना की जा रही है।
‘गंगा रक्षा मंच’ के राष्ट्रीय संयोजक, अध्यक्ष तथा योग ऋषि श्रद्धेय स्वामी रामदेवजी महाराज भारत को विश्व गुरू के पद पर पुनर्स्थापित करने के लिए स्वस्थ भारत, स्वच्छ भारत, जनसंख्या नियंत्रण, स्वदेशी से स्वावलम्बी और शत-प्रतिशत मतदान संकल्प को लेकर अहर्निश कार्यरत हैं। स्वच्छ भारत के परिप्रेक्ष्य में अविरल गंगा, निर्मल गंगा हेतु प्रदूषण से मुक्त कराने के लिए स्वामीजी महाराज ने सैंकड़ों कारसेवकों तथा योग साधकों के साथ हरिद्वार में हर की पौड़ी पर गंगा की सफाई का अभियान चलाया।
श्रद्धेय स्वामीजी का मानना है कि गंगा राष्ट्रधारा का प्रतिनिधित्व करती है। संत भारतीय संस्कृति के संवाहक हैं। अगर गंगा की अस्मिता को बचाये रखना है तो गंगा को प्रदूषित और विलुप्त होने से बचाना है। गंगा को उनके दर्द से मुक्त कराना होगा क्योंकि मोक्षदायिनी ‘गंगा’ खुद मोक्ष की तलाश में हैं। यह काम संत-महात्मा तथा हम सभी को मिलकर करना है।
18 अगस्त 2008 को कानपुर (उ.प्र.) में स्वामीजी ने कहा था कि भारत को स्वच्छ बनाने की शुरूआत हम गंगा की निर्मलता और अविरलता के ध्येय को सामने रखकर ही कर रहे हैं। क्योंकि गंगा ही निर्मल नहीं होगी तो स्वच्छ भारत की कल्पना ही निराधार है। भारतीय सभ्यता, संस्कृति और सनातन धर्म की किसी भी कीमत पर रक्षा करना ही संतो तथा नागा संतों का परम धर्म है।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)