बुधवार, 8 सितंबर 2010

निबंध

भारत का मुक्ति संघर्ष और चौरी चौरा कांड
आजादी के दीवानों के जंग की दांस्ता है चौरी चौरा कांड

राष्ट्रीय आंदोलन की पृष्ठभूमि में क्षेत्रीय इतिहास की महत्वपूर्ण भूमिका है। वस्तुतः क्षेत्रीय इतिहास की वह मूल आधर है जो राष्ट्रीय इतिहास को स्वर देता और मुखर करता है। इस दृष्टि से देखा जाय तो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में पूर्वांचलका योगदान किसी से कम नहीं है।

चलिए चलते हैं एक ऐसे ध्रोहर की ओर जहां से भारत के मुक्ति आंदोलन की दिशा ही बदल गयी थी। यह ऐतिहासिक स्थल है चैरी चैरा। उत्तर प्रदेश जिले में गोरखपुर जिला से देवरिया मार्ग पर 25 किमी. दूर चैरी चैरास्थित है। चैरी चैरा काण्डको जानने के पहले वह जानना काफी जरूरी हो गया है कि चैरी चैरा कांडक्यों हुआ?

बात मार्च 1919 की है, जब महात्मा गांधी ने अहिंसक राज्य क्रांतिका शंखनाद किया था। सन् 1920 में गोरखपुर में बाले मियां के मैदान में विशाल जन समूह को सम्बोधित करते हुए गांधी जी ने कहा कि- विदेशी वस्त्रों और अंग्रेजी पढ़ाई का बहिष्कार किया जाय। चर्खे से सूत कातकर कपड़ा बनाकर पहना जाय तो अंग्रेजों को यह देश छोड़ने में देर नहीं लगेगी।

उस समय गोरखपुर एक ऐसा जिला था जिसमें कांग्रेस संगठन नीचे से ऊपर तक मजबूत और पूर्ण था। यहां ताड़ी, शराब, गांजा और विदेशी कपड़ों की दुकानों पर सत्याग्रह शुरू किया गया।

इसी क्रम में सहजनवां (गोरखपुर जिले का एक हिस्सा) और चैरी चैरास्थित प्रमुख बाजारों में सत्याग्रह चलाने का निश्चय किया गया। चैरी चैरा उस समय विदेशी कपड़ों का बहुत बड़ा बाजार था। यहां सत्याग्रह शुरू करने के लिए कापफी तैयारी की गयी थी। शराब, ताड़ी तथा विदेशी कपड़े की दुकानों पर वहां समाज सेवकों के जत्थों ने दो महीने तक धरना दिया। जमींदारों की मदद से पुलिस वाले इन पर लाठियां बरसाते थे। रिसाल से घोड़े मंगवाये गये, घोड़ों की टापों से कुचल जाने पर भी सत्याग्रहियों ने न तो साहस छोड़ा और न आतंकित हुए।

इस क्षेत्र के सत्याग्रह के सूत्रधर पंडित मोतीलाल नेहरू थे। उन्होंने आदेश दिया कि सत्याग्रही छोटे-छोटे जत्थे में जायें। जब एक जत्था पिट जाय तभी दूसरा जत्था आगे जाय। बाजार के दिन दो शनिवार यह क्रम चला।

4 फरवरी 1922 को तीसरा शनिवार पड़ता था। बड़ी तैयारी के साथ सत्याग्रही चैरी चैरा भेजे गये। यह निश्चय किया गया कि चाहे कितना भी अत्याचार क्यों न हो, पीछे नहीं हटा जायेगा। उस दिन 400 के लगभग स्वयंसेवक अलग-अलग जत्थों में बंट गये।

ब्रह्मपुर स्थित कांग्रेस कार्यालय से सत्याग्रहियों को चैरी चैरा के लिए प्रस्थान कराया गया। ज्यों ही पहला जत्था चैरी चैरा थाने के सामने पहुँचा त्यों ही सशस्त्र सिपाही, चैकीदार और घुड़सवार उन पर टूट पड़े। पुलिस कर्मियों ने स्वयंसेवकों के पहले जत्थे को मारपीट कर घायल कर दिया। अपने साथियों को घायल देखकर किसी ने खतरे के संकेत वाली सीटी बजा दी। खतरे की सीटी सुनकर बाकी बचे स्वयंसेवक भी वहां पहुँच गये। स्वयंसेवकों को आता देखकर पुलिसवालों ने उन पर गोलियां चलानी शुरू कर दी। गोलियों की आवाज और घायलों की कराह ने एक दुःखद माहौल पैदा कर दिया।

गोलियों की वर्षा से कई सत्याग्रहियों ने वहीं पर दम तोड़ दिया। घायल साथियों को देखकर स्वयंसेवकों का क्रोध भड़क गया। पुलिस की गोलियां भी समाप्त हो गयीं। गोली समाप्त होने पर पुलिसकर्मी जान बचाकर थाने के भीतर छिप गये। इसी बीच किसी ने मिट्टी का तेल डालकर थाने में आग लगा दी। अंदर छिपे पुलिसकर्मी और दारोगा जलकर राख हो गये।

जो लोग निकलकर भागने का प्रयास करते उन्हें भी पकड़कर सत्याग्रही आग में डालते गये। इस घटना में दारोगा की गर्भवती पत्नी बच गयी। चैकीदार समेत 23 पुलिस कर्मियों को अग्नि-समाधि दी गयी। इस घटना से महात्मा गांधी ने विचलित होकर सत्याग्रह आंदोलन बीच में ही स्थगित कर दिया।

गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लेने पर सुभाष चंद बोस ने कहा- जब जनता का जोश उबाल पर था ऐसे समय पीछे हटने का बिगुल बजा देना पूरे राष्ट्र के लिए बहुत बड़ी दुर्घटना थी। महात्मा जी के प्रमुख सहायक देशबंधु चितरंजन दास, मोतीलाल नेहरू, लाला लाजपत राय सबके सब जेल में थे। सामान्य जन जीवन की तरह वे लोग भी इस निर्णय से काफी नाराज थे।

क्या चैरी चैरा कांड ने महात्मा गांधी के अरमानों पर पानी फेर दिया था या स्वयं गांधी जी इस ऐतिहासिक घटना का आकलन करने में चूक गये थे। यह सवाल आज भी अनुत्तरित है। परन्तु यह बात सच है कि इस घटना ने आजादी के लड़ाई का नक्शा ही बदल दिया था। चैरी चैरा में हुई हिंसा गांधीजी को बर्दाश्त नहीं हुई। उनका कहना था कि अहिंसात्मक आंदोलन के लिए उनकी आशा के अनुरूप देश की जनता तैयार नहीं है। ऐसी दशा में आंदोलन छेड़ना हिमालय जैसी भूलहोगी।

चैरी चैरा में जला पुलिस थाना के पास में बनी मजारें उन पुलिस कर्मियों की हैं जो थे तो हिन्दुस्तानी परन्तु उनके दिलों में राष्ट्र का जज्बा नहीं था। इन मजारों को देखकर उनकी याद तो आती है लेकिन राष्ट्रभक्त के रूप में नहीं, ब्रिटिश हुकूमत के नुमाइंदों के रूप में। यही रेलवे लाइन के उस पार बना शहीद स्मारकगगन की तरफ इशारा करके देश पर शहीद स्वयंसेवकों की याद दिलाता है।

इस कांड के बाद ब्रिटिश शासन ने आस-पास के क्षेत्र में हिंसा का नग्न तांडव मचाया। राजद्रोह का आरोप लिये इस क्षेत्र के लोग वर्षों तक तमाम प्रकार का कष्ट और सजा भोगते रहे। अंग्रेजों ने सुनियोजित ढंग से एक मुकदमा चैरी चैराकेस के नाम से सैकड़ों लोगों पर चलाया।

इसमें 192 लोगों को  फांसी की सजा हुई। मुकदमें के दौरान 232 लोगों का चालान किया गया। जिसमें 228 लोग सेशन को सिपुर्द किये गये। उनमें से दो लोग बीच ही में मर गये। एक व्यक्ति के ऊपर से मुकदमा ही हटा लिया गया। 225 व्यक्तियों का फैसला किया गया जिसमें 192 व्यक्तियों को फांसी की सजा, दो को दो-दो वर्ष की सजा और शेष लोगों को आजन्म कालापानी की सजा दी गयी।

इस फैसले के विरुद्ध मदन मोहन मालवीय एवं पंडित मोतीलाल नेहरू ने हाईकोर्ट में अपील की। जिसमें 38 व्यक्तियों को आजन्म जेल एवं 19 व्यक्तियों को  फांसी की सजा सुनायी गयी। यह निर्णय 23 अप्रैल 1923 को सुनाया गया था और पहली जुलाई को सजा पाने वाले की प्रार्थना स्वीकार कर ली गयी। दो जुलाई 1923 को सभी 19 सत्याग्रहियों को  फांसी की सजा दी गयी। इन शहीदों के शव को खद्दर में लपेटकर स्वयंसेवकों ने अंतिम संस्कार किया। आजादी के दीवानों के जंग की दास्तां है चैरी चैरा कांड

चैरी चैरा काण्डमें शहीद पुलिसकर्मी जिन्हें थाने में जिन्दा जलाया गया था, उसी थाना के जगह पर कई लोगों की समाधि – गुप्तेश्वर सिंह (थानाध्यक्ष), पृथ्वीपाल सिंह सहायक थानेदार, मोहम्मद वंशी खां (प्रधन लेखक), रघुवीर, रामलखन सिंह, विश्वेश्वर राम यादव, गदाबक्श खां, कपिल देव सिंह, लखई सिंह, हसन खां, मोहम्मद जमां खां, मगरू चैबे, रामबली पांडेय, जगदेव सिंह, जगई सिंह, मोहम्मद जकी, इन्द्रासन सिंह, मरदाना खां (सभी सिपाही), वजीर घोसई, जकई, कतवाहरू राम (सभी चैकीदार) खपरैल के थाने में पुलिसकर्मियों के साथ थाने के सभी अभिलेख जलकर नष्ट हो गये।

1922 में सत्याग्रहियों ने थाने को अपने कब्जे में लेकर इस पर 24 घंटे तक तिरंगा लहराया था। आजादी का गीत गाकर प्राणोत्सर्ग करने वाले वीर स्वतंत्रता प्रेमी अपने नाम और यश के लिए काम नहीं किये। अगणित शहीद अनाम हैं, जिनकी आरती उतारना, उनके प्रति नमित होना हमारा कर्तव्य है। इन शहीदों के गीत पावन गाता है सूर्य की प्रभाती रश्मियां उनका वंदन करती हैं। शहीदों की स्मृति में स्थापित कीर्ति स्तम्भ पर शुभ्र चांदनी अपनी निरभ्र और शीतल छाया से उनका यशगान करती है। पीढ़ियां गर्व से इन अमर शहीदों का नित्य स्तवन गान करेंगी। देशभक्ति से ओतप्रोत भावी संततियां उनका निरंतर स्मरण, मातृभूमि और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए प्रेरणा, शक्ति और संकल्पभाव ग्रहण करेंगी।

मीनार की इस नींव में उनकी साधें खोयी हैं। नेतृत्वों की जड़ें, इनकी लहू से धोयी गयी। आजादी के बुर्ज उठे हैं, उनके उत्सर्गों पर, इसके कण-कण में उनकी कुचली साधें सोयी हैं उनके पवित्र स्थल पर हम सभी साध्य दीप जलायें। उनके रक्त से सींचें पथों, मैदानों में मंडराएं।

दूसरा कीर्ति स्तम्भ जिन शहीद कांग्रेसी सत्याग्रहियों की याद दिलाता है वे हैं- दुध्ई पुत्र राम समुझावन (ग्राम चैरी), कालीचरन पुत्र निर्गुन कहार (ग्राम चैरा), आदि दर्जनों लोग हैं।

जिला स्वतंत्रता संग्राम शहीद स्मारक समिति द्वारा आयोजित पूर्वांचल स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सम्मेलन के अवसर पर चैरी चैरा काण्ड की 60वीं वर्षगांठ, 6 फरवरी 1982 तद्-नुसार माघ शुक्ल त्रयोदशी, शनिवार संवत 2038 को प्रधनमंत्री श्रीमती इंन्दिरा गांधी ने शहीद स्मारक का शिलान्यास किया था।

19 जुलाई 1993 में भारत के प्रधनमंत्री पी.वी.नरसिंह राव और उत्तर प्रदेश के राज्यपाल मोतीलाल वोरा ने शहीद स्मारक चैरी चैरा का लोकार्पण किया।

इन बलिदानियों के लहू के एक-एक बूँद की शक्ति अपरम्पार थी। वे स्वयं शहीद हो गये और देश के स्वतंत्रा होने का स्वप्न साकार कर गये। यदि हमारे देश के महान क्रांतिकारी स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति न देते तो अंग्रेजी राज्य का जुआ हमारे कंधों पर धरा ही रहता।

1857 में जो स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ, उसका अंत 15 अगस्त 1948 को आजादी मिलने पर ही हुआ। इन सौ वर्षों के महासंग्राम में अनेक वीरों ने हिस्सा लिया। कुछ का नाम तो इतिहास के पन्नों में दर्ज है। शेष खरिज है। ये सब कुर्बानियां जितनी तब प्रासंगिक थीं, उतनी आज भी हैं। उनके सामने देश की स्वतंत्रता का प्रश्न था और आज देश की रक्षा का प्रश्न है। शहीद स्थल पर स्थित संग्रहालयचित्रों के माध्यम से चैरी चैरा कांडकी याद दिलाता है।
 -पतंजलि योगपीठ, हरिद्वार

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत प्रेरणादायी एवं अभिमानास्पद इतिहास.
    सभी शहिदोंको विनम्र अभिवादन.

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  2. चौरी चौरा के दक्षिण ब्रह्मपुर में क्षेत्रीय जमींदार बलदेव प्रसाद दुबे के सहयोग से प्रधान कार्यालय खोला गया था ।

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  3. ब्रह्मपुर हमारा पैतृक गांव है।

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