जब बिस्मिल पर उनके साथी ने ही गोली चलाई
क्या ही लज्जत है कि रग-रग से यह आती है सदा।
दम न ले तलवार जब तक जान ‘बिस्मिल’ में रहे।
देश की स्वतंत्रता के लिए भारत मां के जिन सपूतों ने अपना सर्वस्व निछावर किया, उनमें रामप्रसाद बिस्मिल का नाम स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में सोने के अक्षरों में अंकित है। उनकी पंक्तियां ‘सर फरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है।’ तो स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान जन-जन को आजादी के लिए मर-मिटने की प्रेरणा देती ही रही हैं। आज भी इन पंक्तियों से हमें इस धरती की गरिमा और गौरव की रक्षा के लिए तत्पर रहने की प्रेरणा मिलती है।
ऐसे स्वतंत्रता सेनानियों और शहीदों के अदम्य साहस और बलिदान की गाथा हमारी युवा पीढ़ी तक पहुँचनी चाहिए, जिससे देश के होनहार नौजवानों को यह पता चल सके कि देश की स्वतंत्रता यूँ ही नहीं मिली है। इसके लिए अनेक लोग फांसी के तख्ते पर झूले हैं। अनेक माताओं से उनके कलेजे के टुकड़े शहीदी का बाना पहनकर सदा के लिए बिछुड़े हैं।
अनेक बहिनों का सुहाग छिना और बहुत-सी ऐसी प्रतिभाओं ने अपने प्राणों की आहुति दे डाली जो अभी जीवन के प्रांगण में पदार्पण कर ही रहे थे। भारत माँ के इन शहीदों ने समय की शिला पर अपना बलिदान अंकित कर देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त करने की नींव डाली। यदि ये बलिदान न होते तो पता नहीं सुनहरी स्वतंत्रता का क्या होता? पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े हुए हमारे देश पर जब ब्रिटिश सरकार का दमन चक्र तीव्र गति से चल रहा था तब स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए देश के कोने-कोने में उथल-पुथल होने लगी और प्रत्येक नागरिक स्वाधीन सुबह में सांस लेने के लिए व्यग्र हो उठा।
दासता से मुक्त होने के लिए युवा वर्ग के मन में क्रान्ति करवट लेने लगी। आजादी की लड़ाई में होम होने वालों के मार्ग अलग होने पर भी लक्षित ज्योति एक ही थी। आजादी के दीवानों का एक वर्ग जहाँ असहयोग एवं अहिंसा के मार्ग पर चल कर विदेशी शासक से मुक्ति चाहता था, वहीं कुछ अति-उत्साही वीरों का वर्ग नरम दल की नरम नीति नर निर्भर न रह कर क्रान्तिकारी मार्ग पर चल कर उन्हें अपने देश से भगा देना चाहता था। पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के जन्म दिन पर उनके एक संस्मण का यहां उल्लेख कर रहा हूँ जब उनके क्रांतिकारी मित्रों ने ही उनके साथ विश्वासघात किया उन पर प्राणघातक हमला किया। प्रयाग (इलाहाबाद) की एक धर्मशाला में दो-तीन दिन निवास करके विचार किया गया कि एक व्यक्ति बहुत दुर्बलात्मा है यदि वह पकड़ा गया तो सब भेद खुल जायेगा। अतः उसे मार दिया जाये। मैंने कहा मनुष्य-हत्या ठीक नहीं। पर अन्त में निश्चय हुआ कि कल चला जाये और उसकी हत्या कर दी जाये।
मैं चुप हो गया। हम लोग चार सदस्य साथ थे। हम चारों तीसरे पहर झाँसी का किला देखने गये। जब लौटे तब सन्ध्या हो चुकी थी। उसी समय गंगा पार करके यमुना तट पर गये। शौचादि से निवृत्त होकर मैं संध्या समय उपासना करने के लिये रेती पर बैठ गया। एक महाशय ने कहा- ‘यमुना के निकट बैठो।’ मैं तट से दूर एक ऊँचे स्थान पर बैठा था। मैं वहीं बैठा रहा। वह तीनों भी मेरे पास ही आकर बैठ गये। मैं आँखें बन्द किये ध्यान कर रहा था। थोड़ी देर में खट से आवाज हुई। समझा कि साथियों में से कोई कुछ कर रहा होगा। तुरन्त ही एक फायर हुआ। मैं रिवाल्वर निकालता हुआ आगे को बढ़ा। पीछे फिर कर देखा, वह महाशय माउजर हाथ में लिये मेरे ऊपर गोली चला रहे हैं। कुछ दिन पहले मुझसे उनसे कुछ झगड़ा हो चुका था, किन्तु बाद में समझौता हो गया था। पिफर भी उन्होंने यह कार्य किया।
मैं भी सामना करने को प्रस्तुत हुआ। तीसरा फायर करके वे भाग खड़े हुये। उनके साथ प्रयाग (इलाहाबाद) में ठहरे हुए दो दस्य और भी थे। वे तीनों भाग गये। मुझे देर इसलिये हुई कि मेरा रिवाल्वर चमड़े के खोल में रखा था। यदि आध मिनट और उनमें कोई भी खड़ा रह जाता तो मेरी गोली का निशाना बन जाता। मैं बाल-बाल बच गया। मुझसे दो गज के फासले पर से माउजर पिस्तौल से गोलियाँ चलाई गईं और उस अवस्था में जबकि मैं बैठा हुआ था। मेरी समझ में नहीं आया कि मैं बच कैसे गया? पहला कारतूस फूटा नहीं। तीन फायर हुए। मैं गद्गद होकर परमात्मा का स्मरण करने लगा।
आनन्दोल्लास में मूझे मूर्छा आ गई। मेरे हाथ से रिवाल्वर तथा खोल दोनों गिर गये। यदि उस समय कोई निकट होता तो मुझे भली-भांति मार सकता था। मेरी यह अवस्था लगभग एक मिनट तक रही होगी कि मुझसे किसी ने कहा, ‘उठ’! मैं उठा। रिवाल्वर उठा लिया। खोल उठाने का स्मरण ही न रहा। मैं केवल एक कोट और एक तहमद पहने था। बाल बढ़ रहे थे। नंगे सिर, पैर में जूता भी नहीं। ऐसी हालत में कहाँ जाऊँ। अनेकों विचार उठ रहे थे। इन्हीं विचारों में निमग्न यमुना तट पर बड़ी देर तक घूमता रहा। ध्यान आया कि धर्मशाला चलकर ताला तोड़ सामान निकालूँ। फिर विचार धर्मशाला जाने से गोली चलेगी, व्यर्थ में खून होगा। अभी ठीक नहीं। अकेले बदला लेना ठीक नहीं। और कुछ साथियों को लेकर फिर बदला लिया जायेगा।
मेरे एक साधरण मित्र प्रयाग में रहते थे। उनके पास जाकर बड़ी मुश्किल से एक चादर ली, और रेल से लखनऊ आया। लखनऊ आकर बाल बनवाये। धेती, जूता खरीदे, क्योंकि रुपये मेरे पास थे। रुपये न भी होते तो मैं सदैव जो चालीस-पचास रुपये की सोने की अंगूठी पहने रहता था, उसे काम में ला सकता। वहाँ से आकर अन्य सदस्यों से मिलकर सब विवरण कह सुनाया। कुछ दिन जंगल में रहा। इच्छा थी कि संन्यासी हो जाऊँ। संसार कुछ नहीं। बाद को पिफर माता जी के पास गया। उनसे सब कह सुनाया। उन्होंने मुझे ग्वालियर जाने का आदेश किया।
थोड़े दिनों में माता-पिता सभी दादी जी के भाई के यहाँ आ गये। मैं भी वहीं आ गया। मैं प्रत्येक समय यही विचार किया करता कि मुझे बदला अवश्य लेना चाहिये, एक दिन प्रतिज्ञा करके रिवाल्वर लेकर शत्रु की हत्या करने की इच्छा से मैं गया भी, किन्तु सफलता नहीं मिली। इसी प्रकार की उधेड़-बुन में मुझे ज्वर आने लगा। कई महीने तक बीमार रहा। माता जी मेरे विचारों को समझ गईं। माताजी ने बड़ी सान्त्वना दीं। कहने लगीं, कि प्रतिज्ञा करो कि तुम अपनी हत्या की चेष्टा करने वालों को जान से न मारोगे। मैंने प्रतिज्ञा करने में आनाकानी किया तो वे कहने लगी कि मैं मातृ ऋण के बदले में प्रतिज्ञा कराती हूँ, क्या उत्तर है? मैंने कहा- ‘मैं उनसे बदला लेने की प्रतिज्ञा कर चुका हूँ।’ माता जी ने मुझे बाध्य कर मेरी प्रतिज्ञा भंग कराई। अपनी बात श्रेष्ठ रखीं। मुझे भी सिर नीचा करना पड़ा। उस दिन से मेरा ज्वर कम होने लगा और मैं अच्छा हो गया।
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