रविवार, 26 सितंबर 2010

विश्वास


उस बादामी शाम में कोई रंगत नहीं थी। पारदर्शी आंखों के किनारे सूख गये और हल्की-फुल्की बूँदाबांदी के बाद सब कुछ जैसे धूलि-धूसरित होकर रह गया। उसे लगा था वह फिर कहीं से ढरक गया है, उसके भीतर कहीं कुछ टूट-सा गया है और मन बिखर गया है। किसी पारे की तरह तरल और अनमना-सा मन। उसने छज्जेदार हवेलियों से झांकती और छतों पर चीलों सी मंडराती कटी हुई आंखों की दृष्टियों से बचकर अपनी पाण्डुलिपि किसी को थमाते हुए कहा-इसे जल्दी ही पढ़ लीजिये। यह मेरी नयी कृति होगी। पढ़ेंगी तो अच्छा महसूस करेंगी। इसमें मेरी कुछ निजी पंक्तियां भी हैं, साथ रहेंगी तो देर तक आपसे बतियाती रहेंगी, मौन मुखर छवियों-सीं और वह अंधेरे की अन्धी गली में आगे कहीं निकल गया, जैसे कई गुमनामी के अन्धेरों में खो गया हो एक मुद्दत के लिए।

फिर वही पीड़ा, फिर वही अहसास और विश्वास के बावजूद अप्रत्याशित शंका वह कितने-कितने पड़ावों से गुजरने के बाद यह मुस्कान चेहरे पे समेटे है जैसे सब कुछ लुट जाने के बाद कहीं कुछ पाने के लिये उसके पास एक विश्वास ही तो रह गया था जिसे वह आज भी संजोये हुए है, किसी कल के लिए। वह प्रसन्न भी है तो किसी सपने को मूर्त रूप देने के लिए। वह आत्मविश्वास की कोई शक्ल और तराशे हुए नख-शिखा की तरह।

फिर एक अतीत सजीव होने लगा जिसका कोई वर्तमान था और एक सुख चित्रांकित हो गया उमर के कैनवास पर। जो जितना दमित होता है, उसका जागरण भी उतना ही प्रखर होता है। उसे लगा, वह कोई नाम है, किसी खोयी हुई पहचान का। दर्द कहीं ठहरने लगा, कोई टीस शब्द में ढलने लगी और आलपिन की नोंक सा कुछ चुभ गया भीतर। उसने सोचा, कितनी अजीब है यह दुनिया और अनायास ही कैसे घट जाता है कोई हादासा। हम दर्द के संगाती होते तो डूब जाते किसी अतीत के धुंधलके में मन का दुःख चुपचाप ही सहा जाता है, किसी से कहा नहीं जाता। उसे ध्यान आया, वह कभी-कभी उसके दृष्टिबन्ध में आ जाया करती थी और वह सोचता था। काश, वह खोये हुए दिनों में कभी कहीं मिली होती तो उसका जीवन ही उबर जाता।

नाम तो याद नहीं, उसका जीवन एक सीधी लकीर सा था जिसे कोई चाहता तो चित्र का रूप दे सकता था और चाहता तो गहरा कर ऐसी आकृति में ढालता जैसी कभी देखी न गयी हो। हुआ यह कि वह आकृति बनने से पूर्व ही आकृति विहीन होने लगी। छोटी वय में विवाहित होने के साथ ही वह किसी बड़े पहाड़ जैसे दुःख की भागीदार बन गयी। सुहाग का अर्थ तक समाप्त हो गया तब उसे पता लगा कि उसका पति दो शादियां करने के बाद किसी का पति नहीं कहा जा सकता और वह सम्बन्ध क्या जिसमें दम्पत्ति की कोई आकांक्षा शेष न रह जाये। वह ब्याहता होकर भी कुमारी ही रही। वर, ससुराल, सुहाग-सिन्दूर जैसे शब्दों के मन टटोलने के बाद भी उसे कुछ नहीं मिला, एक भूल के अहसास के सिवा।

वह कोई तेरह वर्ष की रही होगी कि उसकी देह पर हल्दी चढ़ायी गयी और वह स्वर्णिम आभा के साथ उजलने लगी। रूप में निखार आते ही उसे अंजाने हाथों में चले जाने का भय सालने लगा। वह शादी का अर्थ ही नहीं जानती थी। वह सिहर उठी किसी शंका के साथ। उसने ससुराल की देहरी लांघकर पिता के घर लौट आने में ही अपना भविष्य समझा। दो व्याहताओं के पति में पति जैसा क्या रह जाता है सामीप्य के लिए...।

वह घर लौट आयी अपूजित वस्तु की तरह, किन्तु उसने खण्डित देवता के चरणों में चढ़ना पसन्द नहीं किया। वह पूजा-सी पवित्र रहना चाहती थी किसी सम्बल के साथ, यह सोचकर कि उसका भी कोई देवता होगा, वह देहरी, अहसास, समर्पण और कशिश के साथ जिन्दगी जी सकेगी और उसे भी वह सुख-सम्मान मिलेगा जिसके बारे में वह बचपन में सोचती रही है।

नैहर लौट आयी तो पिछले कुछ दिनों का समय पांवों की गति के साथ चला। वह टूटती-बिखरती रही बेवजह की हकीकत के बाद। उसने निश्चय किया कि भले ही वह अनिश्चय की देहरी तक रहे, वह अपने ऋण से उऋण न हो या उसे वह सब न मिले जैसा वह चाहती है, किन्तु वह उस कगार पर खड़ी नहीं होगी जहां पांव धरती में धंसते चले जाते हैं। वह अतीत को कभी नहीं दोहरायेगी। वह कोई नुमाइश की चीज नहीं जिसे जी चाहे देखे और कहे दुनिया की नुमाइश में ऐसे खिलौने भी होते हैं। खिलौने, जो सजने से पहले ही टूट जाय या जिनकी कोई उम्र ही न हो।

फिर वह अपने पांव चलने लगी और अतीत का हर लम्हा उसके पांवों को थकान देता रहा। जैसे किसी ने कहा हो, ब्याह किया है तो ससुराल में ही रहना होगा और वर का क्या! भाग्य से जो मिल जाये, जैसा बदा हो।

वह बिलख-बिलखकर रो पड़ी। विवशता कैसे तोड़ देती है नारी और उसके सपने को, उसने पहली बार महसूस किया। तभी किसी ने कन्ध छुआ-तुम ब्याहता हो, पति को छोड़ भी दोगी तो कौन ब्याहेगा तुम्हें, अभी समाज इतना आगे नहीं है और पिछड़े को आगे लाना कोई नहीं चाहता। सुना, अकेली रहोगी तो क्या गिद्धदृष्टियां नहीं नोंच खायेंगी तुम्हें।

यहां वह समझौता कर सकती थी, किन्तु उसने ऐसा नहीं किया। वह आत्मबल के साथ अपने पांवों चलने लगी। पहले उसने अपने को शिक्षित किया, किन्तु संघर्ष-यात्रा के पूरे होते-होते पिता का साया सिर से उठ गया, और वह रह गयी अकेली, किसी अधूरे वाक्य सी, अर्धविराम-सी।

समय हवा के पंखों पर उड़ चला। ऋतुएं रंग लिये आयी तो उनकी झांईं से वह खड़ी होने लगी और एक दिन सूरज उसके द्वार भी आया। सूरज की अगवानी के लिए वह द्वार खोलने लगी कि देखा किरणें खिड़कियों के रास्ते से भीतर आ गयी हैं। उजाले का हाथ गहते ही वह सबल हो उठी। उसने मेहनत से अपने को स्वावलम्बी बनाया, किसी का अहसान उसने कभी नहीं लिया। वह दूसरे के लिए सम्बल बनी।
उसने अतीत को व्यतीत समझकर काट दिया, यह सोचकर कि जो अंग नासूर बन जाये उसे काट दिया जाना चाहिए ताकि वह दूसरे अंगों में तो नहीं फैले। वह जिन्दगी के नये सफर के लिए नये मुकाम तलाशने लगी। शान्त-स्निग्ध कविता के मूल और अनुवाद के शब्दार्थ-सी।

वह हर बार नये उत्साह के साथ मिलती और उसे लगता निश्चय ही उसका कोई गन्तव्य होगा। वह आने वाले कल के लिए आज जैसी नहीं रहेगी और यदि उसने एक क्षण भी जिन्दगी को अपनी तरह जी लिया तो उसे कोई शक्ति नहीं तोड़ सकती।

उसकी कहानी बाल-विवाह और तलाक के बाद भी एक धरावाहिक कहानी है जिसका छोर कोई नहीं जानता। वह किसी संकल्प को जरूर मूर्त रूप देगी। वह जरूर विहंस-विहंस उठेगी किसी आभा के साथ।
एक दिन वह रास्ते में मिली तो बतियाने लगी थी, आप बहुत अच्छा लिखते हैं। आपकी कुछ कहानियां मैंने अपने लिए भी रख लिये हैं। मैं आपकी दूसरी रचनाएं भी पढ़ना चाहूँगी। उन्हें पढ़ने में मुझे लगता है, मेरा भी कोई जमीर है और मुझे उसके लिए जीना है।

उसे लगा, वह मामूली लड़की नहीं है। अब उसे किसी सहारे की भी जरूरत नहीं। वह साहसी और संकल्पी है। कामकाजी महिला की सभी खूबियाँ हैं उसमें। वह किसी आसमान को प्रकाशमान करेगी, किसी जमीन पर उंगलियों के फूलों से नाम लिखेगी और उसके जीवन में कोई दूसरा प्रकाश दीप अवश्य आयेगा।

तभी मानस में पंक्तियां कौंध गयीं- खुशियां थी चार दिन की, आंसू हैं उम्र भर की, तन्हाइयों में अक्सर रोयेंगे याद करके, जैसी पंक्तियां कितनी गलत हो गयी है यहां। कैसी कहर, कैसी रात कैसी बारात और कैसा जनाजा, सब शाब्दिक बातें हैं। सत्य है तो इतना ही कि कोई एक क्षण है जो सब कुछ छीन लेता है और चाहे तो वह सब कुछ दे देता है, वह सब भी जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। वह उसी एक क्षण की विश्वास है।

फिर हवा के एक झोंके ने आ दबोचा- तुमने वह क्षण देखा है।

देखा तो नहीं, महसूस जरूर किया है। समाज से बहिष्कृत, परिवार से उपेक्षित-तिरस्कृत और सुविधओं से वंचित रहने के बावजूद मैं आज भी किसी इकाई के साथ स्थापित हूँ। यह उसी क्षण की देन है।
तो फिर एक क्षण लिख दो ना उसके नाम।

कल प्रार्थना क्षणों में से कोई एक क्षण चुनकर रखूंगा उसके लिए। मैं उसे सुखी देखना चाहता हूँ और इतना सम्बन्ध तो होता ही है लेखक और पाठिका में।

दूसरे दिन प्रार्थना करके उठा तो देखा द्वार के सामने वही नाम उसी शक्ल में गुजर रहा था, जैसे कोई रोशनी की लकीर लम्बी हो गयी हो।

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