कुम्भ के अवसर पर पंचपुरी देवनगरी हरिद्वार के गंगा जल में डुबकी लगाने की उद्दाम लालसा आदिकाल से ही भारतीय जन मानस में है। शास्त्रों और पुराणों में ऋषियों ने मुक्तकंठ से इस महापर्व की अर्भ्यथना की है। कुम्भ पर अमृत हो जाने वाले गंगा जल के आचमन के लिए दुनिया भर से आये करोड़ों श्रद्धालु गंगा के तट पर एकत्रित होते हैं। कुम्भ के इसी आध्यात्मिक और सामाजिक महत्व का दिग्दर्शन करते हुए हम ‘योग कुम्भ’ के संदर्भ में भी विचार करेंगें।
काल खंड की निश्चित अवधि में नैसर्गिक भूखंड पर प्रत्यक्ष प्रवाहित गंगा भावोत्प्रेरक यमुना और अज्ञात विलीन सरस्वती का कुम्भ,अर्द्धकुम्भ और महाकुम्भ के आयोजन में देश और देशान्तर से उपस्थित लोग कर्म,भक्ति एवं ज्ञान की शिक्षा ग्रहण करते हैं।
‘कुम्भ’ की उत्पत्ति के विषय में पौराणिक आख्यानों पर दृष्टिपात करें तो कई कथाएं प्रचलित हैं, जिनमें महर्षि दुर्वासा की कथा एवं समुद्र मंथन की कथा का अत्यधिक महत्व है। कथासार के अनुसार देव और दानवों के बीच अमृत से भरे घड़े को लेकर हुए संघर्ष के दौरान दैत्य अमृतपान न कर सकें इसलिए घड़े को लेकर भागे देव पक्ष के लोगों ने चार जगहों पर घड़े को रखकर युद्ध किया था। अमृत जमीन पर गिरा जिसके परिणाम स्वरूप कुम्भ का आयोजन प्रयाग, उज्जैन, नासिक और हरिद्वार में होता है।
कुम्भ की उत्पत्ति के पश्चात 12वर्षों पर इसके आयोजन के पीछे ग्रहों की स्थिति योग को महता दी गयी है। बृहस्पति 12 वर्षों में एक बार बारहों राशियों का भ्रमण करते हैं जबकि सूर्य 12महिनों में अपना परिपथ पूरा करते हैं। जब सूर्य का एक परिपथ पूरा होता है तब माघ महीने का स्नान अमावस्या के दिन होता है। उस दिन चन्द्रमा भी सूर्य की राशि में ही होता है तथा जब बृहस्पति अपना एक परिपथ पूरा कर 12वें वर्ष में वृष में आता है तब यह आयोजन होता है।
इस संदर्भ में वैज्ञानिक धारणा यह है कि सूर्य के भीतर जो रासायनिक परिवर्तन होते हैं उनका क्रम भी लगभग 12वर्ष का ही होता है। जलपूरित घट मांगलिक माना जाता है। आज भी समस्थ प्रकार के पूजन में जल से भरे घड़े का ही पूजन किया जाता है जिस पर समस्त देवों का आह्वान कर पूजार्चन किया जाता है।
‘कुम्भ’ घट का पर्याय है, घट देह का पर्याय है जिसमें अमृत रस रूपी आत्मा व्याप्त है। देह-आत्मा का मिलन ही सृष्टि का संयोजन करता है। देह-आत्मा के स्वरूप को जानने के मार्ग अलग-अलग हो सकते हैं जो मोह या अज्ञान से आच्छादित रहता है। इसी ज्ञान की प्राप्ति के लिए भक्ति,कर्म एवं ज्ञान मार्ग का अनुसरण होता है जबकि सभी मार्गों का अन्त ज्ञान में ही होता है। ‘सर्वाकर्माखिलं पार्थे परिज्ञाने सम्पाप्ते’ (गीता) आच्छादित ज्ञान को देह से आत्मा का संबंध, अद्वैत का ज्ञान ही भारतीय दर्शन का मूल है जिसकी प्राप्ति के लिए वैज्ञानिक निरूपण किया गया। कालान्तर में ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’के हितार्थ इसे जोड़ दिया गया।
स्वर्ग-मोक्ष की कामना से देवभूमि हरिद्वार की पावन भूमि पर इतनी बड़ी संख्या में लोगों के एकत्रित होने के पीछे सिर्फ धार्मिक भाव ही है या अन्य कोई वैज्ञानिक कारण भी, यह एक शोध का विषय है।
माघ महीने में अमावस्या के दिन जब सूर्य मकर में एवं बृहस्पति वृष में होता है उस समय पृथ्वी की स्थिति कैसी होती है, क्या उसके गुरूत्वाकर्षण शक्ति में किसी तरह का विक्षोभ उत्पन्न होता है या नहीं यह भी शोध का विषय है।
श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास ने तो पद्म पुराण में यहां तक कहा है कि यदि कोई श्रद्धालु माघ भर स्नान करने में असमर्थ है तो वह मकर सक्रांति,मौनी अमावस्या तथा वसंत पंचमी –इन तीनों पर्वों पर स्नान करके उतना ही पुण्य प्राप्त कर सकता है। यद्यपि 14, 15, 20 और 30 जनवरी 2010, 12, 15, 24 फरवरी और 30 मार्च, 14 और 28 अप्रेल 2010 तक कुल दस स्नान हैं परन्तु 12 फरवरी महाशिवरात्री, 15 मार्च और 14 मार्च बैसाखी के दिन तीन शाही स्नान हैं। लेकिन 14 मार्च को प्रमुख शाही स्नान माना जा रहा है।
इडा-गंगा-चन्द्र,पिंगला-यमुना-सूर्य तथा सुसुम्णा-सरस्वती-अग्नि-अमृत जो इन तीनों नाड़ियों का संगम स्थान है वही कुण्डलिनी शक्ति का मूल स्रोत मूलाधार चक्र तथा मूलबन्ध लगाने का स्थान भी है। इन सभी महाशक्तियों का केन्द्र होने से इसे ‘शक्ति स्थल’ भी कहा जाता है।
मानव शरीर में स्थित भौहों के मध्य में आज्ञा चक्र को जगाकर अपने शरीर में ही कुम्भ स्नान का लाभ उठा सकते हैं।
कुम्भ स्नान मुक्ति का धाम माना गया है। अपना पूरा ध्यान भ्रूमध्य-आज्ञा चक्र पर ही टिका लें। एक ओर से श्वेतवर्णी गंगा और दूसरी ओर से नीले कृष्ण रंग की यमुना आकर यहाँ मिल रही हैं। ठीक उसी समय सरस्वती भी इस मिलन से संगम के महत्व को बढ़ा रही है।
मनुपुत्र मस्ती में भरकर जय गंगे,जय यमुने और जय सरस्वती बोलकर जब गोते लगाते हैं। जय गंगे-जय यमुने-जय सरस्वते......... जब ध्यान हटा, शरीर पर हाथ रखा तो हाथ कपड़ों पर पड़ा तो बिल्कुल सूखे थे। परन्तु तीनों माताओं ने मनुपुत्र के मन को धो-धोकर इतना पवित्र कर दिया कि मनुपुत्र फिर उसी ध्यान में डूब गया और गोते लगाने लगा। मनुपुत्र निहाल हो गया, यह मानसिक स्नान है, जो वास्तविक स्नान से भी अधिक महत्वपूर्ण है, आनन्ददायी है।
कई बार हम गंगा में वास्तविक रूप से नहा रहे होते हैं,परन्तु मन का स्नान न होने से स्नान का फल नहीं ले पाते। परन्तु इस मानसिक स्नान से ही सभी पापों से मुक्त होकर मुक्ति की ओर बढ़ते हैं। ऐसा योगी ब्रह्माज्ञानी होता है। इसलिए मानव को भ्रूमध्य में मन केन्द्रित कर-प्रभु का ध्यान करना चाहिए।
केन्द्र और राज्य सरकार के तमाम विभागों के अथक प्रयासों ने देवभूमि हरिद्वार के विशाल मेला परिक्षेत्र को सजाया-संवारा है। करोड़ों श्रद्धालुओं को हर संभव सुविधा उपलब्ध कराने के चुनौती पूर्ण लक्ष्य के लिए पूरी सरकारी मशीनरी सालों से युद्धस्तर पर सक्रिय थे। विश्व का यह सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन ‘कुम्भ’ मेला क्षेत्र 130 वर्ग किमी. में फैला हुआ है। इसमें हरिद्वार, ऋषिकेश,मुनि की रेती और स्वर्गाश्रम का क्षेत्र शामिल है। वर्ष 2010जनवरी माह से अप्रैल के मध्य हरिद्वार में ‘पूर्ण कुम्भ मेला’ में लगभग चार से पांच करोड़ श्रद्धालुओं के स्नान करने की संभावना की जा रही है।
‘गंगा रक्षा मंच’ के राष्ट्रीय संयोजक, अध्यक्ष तथा योग ऋषि श्रद्धेय स्वामी रामदेवजी महाराज भारत को विश्व गुरू के पद पर पुनर्स्थापित करने के लिए स्वस्थ भारत, स्वच्छ भारत, जनसंख्या नियंत्रण, स्वदेशी से स्वावलम्बी और शत-प्रतिशत मतदान संकल्प को लेकर अहर्निश कार्यरत हैं। स्वच्छ भारत के परिप्रेक्ष्य में अविरल गंगा, निर्मल गंगा हेतु प्रदूषण से मुक्त कराने के लिए स्वामीजी महाराज ने सैंकड़ों कारसेवकों तथा योग साधकों के साथ हरिद्वार में हर की पौड़ी पर गंगा की सफाई का अभियान चलाया।
श्रद्धेय स्वामीजी का मानना है कि गंगा राष्ट्रधारा का प्रतिनिधित्व करती है। संत भारतीय संस्कृति के संवाहक हैं। अगर गंगा की अस्मिता को बचाये रखना है तो गंगा को प्रदूषित और विलुप्त होने से बचाना है। गंगा को उनके दर्द से मुक्त कराना होगा क्योंकि मोक्षदायिनी ‘गंगा’ खुद मोक्ष की तलाश में हैं। यह काम संत-महात्मा तथा हम सभी को मिलकर करना है।
18 अगस्त 2008 को कानपुर (उ.प्र.) में स्वामीजी ने कहा था कि भारत को स्वच्छ बनाने की शुरूआत हम गंगा की निर्मलता और अविरलता के ध्येय को सामने रखकर ही कर रहे हैं। क्योंकि गंगा ही निर्मल नहीं होगी तो स्वच्छ भारत की कल्पना ही निराधार है। भारतीय सभ्यता, संस्कृति और सनातन धर्म की किसी भी कीमत पर रक्षा करना ही संतो तथा नागा संतों का परम धर्म है।